________________ 262] { व्याख्याप्रज्ञप्तिसून विशेषरूप से व्याप्त, उवत्थडं = उपस्तीर्ण = आसपास फैला हुआ, संथर्ड = संस्तीर्ण-सम्यक प्रकार से फैला हुअा, फुडं =स्पृष्ट--एक दूसरे से सटा हुआ, अवगाढावगाढं- अत्यन्त ठोस-दृढ़तापूर्वक जकड़े हुए।' चमरेन्द्र आदि की विकुर्वणाशक्ति प्रयोग रहित-यहाँ चमरेन्द्र आदि की जो विकुर्वणाशक्ति बताई गई है, वह केवल शक्तिमात्र है, क्रियारहित विषयमात्र है / चमरेन्द्र आदि सम्प्राप्ति (क्रियारूप) से इतने रूपों की विकुर्वणा किसी काल में नहीं करते / / देवनिकाय में दस कोटि के देव-इन्द्र, सामानिक, त्रास्त्रिश, पारिषद्य, प्रात्मरक्ष, लोकपाल, अनोक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषिक, ये दस भेद प्रत्येक देवनिकाय में होते हैं, किन्तु व्यन्तर और ज्योतिष्क देवों में त्रायस्त्रिश और लोकपाल नहीं होते / दसों में से यहाँ पाँच का उल्लेख अर्थ इस प्रकार हैं-इन्द्र = अन्य देवों से असाधारण अणिमादिगुणों से सुशोभित, तथा सामानिक प्रादि सभी प्रकार के देवों का स्वामी। सामानिक--आज्ञा और ऐश्वर्य (इन्द्रत्व) सिवाय प्रायु, वीर्य, परिवार, भोग-उपभोग आदि में इन्द्र के समान ऋद्धि वाले / त्रास्त्रिश-जो देव मंत्री और पुरोहित का काम करते हैं, ये संख्या में 33 ही होते हैं। लोकपाल आरक्षक के समान अर्थचर, लोक (जनता) का पालन-रक्षण करने वाले / प्रात्मरक्ष =जो अंगरक्षक के समान हैं / ' अग्रमाहिषियाँ-चमरेन्द्र की अग्रमहिषी (पटरानी) देवियां पांच हैं-काली, रावि, रत्नी, विद्युत् और मेधा / महत्तरिया = महत्तरिका-मित्ररूपा देवी / वैरोचनेन्द्र बलि और उसके अधीनस्थ देववर्ग की ऋद्धि आदि तथा विकुर्वणाशक्ति 11. तए णं से तच्चे गो० वायुभूती प्रण० समणं भगवं० वंदइ नमंसद, 2 एवं वदासीजति णं भंते ! चमरे प्रसुरिंदे असुरराया एमहिड्ढीए जाव (सु. 3) एवतियं च णं पभू विकुवित्तए, बली णं भंते ! वइरोर्याणदे वइरोयणराया केहिड्ढोए जाव (सु. 3) केवइयं च णं पभू विकुन्वित्तए ? गोयमा ! बली णं वइरोणिदे वइरोयणराया महिड्डीए जाब (सु. 3) महाणुभागे / से गं तत्थ तीसाए मवणावाससयसहस्साणं, सट्ठीए सामाणियसाहस्सीणं सेसं जहा चमरस्स, नवरं चउण्हं सट्ठीणं प्रायरक्खदेवसाहस्सीणं अन्नसिं च जाव भुजमाणे विहरति / से जहानामए एवं जहा चमरस्त; णवरं सातिरेगं केवलकप्पं जंबुद्दीवे दोवं ति माणियन्वं / सेसं तहेव जाव विउविस्सति वा (सु. 3) / 1. (क) भगवतीमूत्र विवेचन (पं. घेवरचन्दजी), भा. 2, पृ. 535 (त्र) भगवती. अ. वृ., पत्र 155 2. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 155 3. (क) भगवतीसूत्र न. वृत्ति, पत्रांक 154 (ख) तत्त्वार्थसूत्र सर्वार्थ सिद्धि टीका, पृ. 175 4. ज्ञाताधर्मकथांग, प्रथम वर्ग, 1 से 5 अध्ययन / पाठान्तर-"तते णं से तच्चे गोतमे वायुभूती अणगारे दोच्चेणं गोयमेणं अग्गिभतिणा अणगारेण सद्वि जेणेव समणे भगवं महावीरे जाव पज्जूबासमाणे एवं क्यासी"-- 6. पाठान्तर"रस तहा बलिरस विनेयन्व; नवरं सातिरेग केवल" / 7. पाठान्तर-'सेसं त चेव णिरवसेसं जयवं, णवरं गाणत्त जाणियब्वं भवणे हि सामाणिएहि, सेवं भंते 2 त्ति तच्चे गोयमे वायुभूति जाब विहरति / " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org