________________ तृतीय शतक : उद्देशक-१] [263 {11 प्र.] इसके पश्चात् तीसरे गौतम (-गोत्रीय) वायुभूति अनगार ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार किया, और फिर यों बोले-'भगवन् ! यदि असुरेन्द्र असुरराज चमर इतनी बड़ी ऋद्धि वाला है, यावत इतनी विकुर्वणाशक्ति से सम्पन्न है, तब हे भगवन् ! वैरोचनेन्द्र वैरोचन राज बलि कितनी बड़ी ऋद्धि वाला है ? यावत् वह कितनी विकुर्वणा करने में समर्थ है ?' (11 उ.] गौतम ! वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि महाऋद्धिसम्पन्न है, यावत् महानुभाग (महाप्रभावशाली) है। वह वहाँ तीस लाख भवनावासों का तथा साठ हजार सामानिक देवों का अधिपति है। जैसे चमरेन्द्र के सम्बन्ध में वर्णन किया गया है, वैसे बलि के विषय में भी शेष वर्णन जान लेना चाहिए। अन्तर इतना ही है कि बलि वैरोचनेन्द्र दो लाख चालीस हजार आत्मरक्ष देवों का तथा अन्य बहुत-से (उत्तरदिशावासी असुरकुमार देव-देवियों का) आधिपत्य यावत् उपभोग करता हुआ विचरता है। चमरेन्द्र की विकुर्वणाशक्ति की तरह बलीन्द्र के विषय में भी युवक युवती का हाथ दृढ़ता से पकड़ कर चलता है, तब वे जैसे संलग्न होते हैं, अथवा जैसे गाड़ी के पहिये की धुरी में आरे संलग्न होते हैं, ये दोनों दृष्टान्त जानने चाहिए। विशेषता यह है कि बलि अपनी विकूर्वणा-शक्ति से सातिरेक सम्पूर्ण जम्बूद्वीप (जम्बद्वीप से कछ अधिक स्थल) को भर देता है / शेष सारा वर्णन यावत् 'विकुर्वणा करेंगे भी नहीं', यहाँ तक पूर्ववत् (उसी तरह) समझ लेना चाहिए। 212. जइ णं भंते ! बली वइरोणिवे वैरोयगराया एमहिड्ढीए जाव (सु. 3) एवइयं च णं पभू विउवित्तए बलिस्स णं वइरोयणस्स सामाणियदेवा केहिड्ढीया ? एवं सामाणियदेवा तावत्तीसा लोकपालऽग्गमहिसोयो य जहा चमरस्स (सु. 4-6), नवरं साइरेगं जंबुद्दीवं जाव एगमेगाए प्रग्गमहिसोए देवीए, इमे वुइए विसए जाव विउव्यिस्संति वा / सेवं भंते ! 2 तच्चे गो० वायुभूती प्रण० समणं भगवं महा० वंदइ ण०, 2 नऽच्चासन्ने जाव पज्जुवासइ / [12 प्र. भगवन् ! यदि वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि इतनी महाऋद्धि वाला है, यावत् उसकी इतनी विकुर्वणाशक्ति है तो उस वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि के सामानिक देव कितनी बड़ी ऋद्धि वाले हैं, यावत् उनकी विकुर्वणाशक्ति कितनी है ? [12 उ.] (गौतम !) बलि के सामानिक देव, त्रास्त्रिशक एवं लोकपाल तथा अग्रमहिषियों की ऋद्धि एवं विकुर्वणाशक्ति का वर्णन चमरेन्द्र के सामानिक देवों की तरह समझना चाहिए। विशेषता यह है कि इनकी विकुर्वणाशक्ति सातिरेक जम्बूद्वीप के स्थल तक को भर देने की है; यावत् प्रत्येक अग्रमहिषी को इतनी विकुर्वणाशक्ति विषयमात्र कही है; यावत् वे विकुर्वणा करेंगी भी नहीं; यहाँ तक पूर्ववत् समझ लेना चाहिए / ___हे भगवन् ! जैसा आप कहते हैं, वह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह उसी प्रकार है,' यों कह कर तृतीय गौतम वायुभूति अनगार ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दन-नमस्कार किया और फिर न अतिदूर, और न अतिनिकट रहकर वे यावत् पर्युपासना करने लगे। विवेचन-वैरोचनेन्द्र बलि और उसके अधीनस्थ देववर्ग की ऋद्धि प्रादि तथा विकुर्वणा - -- 1. यह मूत्र (सू. 12) अन्य प्रतियों में नहीं मिलता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org