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________________ 456] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र शब्दार्थ –मुणो मुणिए-मुनि, तपस्त्री या मुणित--ज्ञाततत्व / ' संखित्तविउलतेयलेस्से-संक्षिप्त और विपुल दोनों प्रकार की तेजोलेश्या / तेजोलेश्या अप्रयोग काल में संक्षिप्त होती है, जबकि प्रयोगकाल में विपुल हो जाती है। भीए-डरा / सनहाए नख-सहित / अर्थात्-जिस मुट्टी के बंद किये जाने पर अंगुलियों के नख, अंगूठे के नीचे लगें, वह सनखा मुट्ठी (पिण्डिका) कहलाती है। कुम्मासपिडियाएमाधे भीगे हुए मंग आदि से अथवा उड़द से भरी (सनख) पिण्डिका (मुट्ठी) / वियडासएणं-विकट (अचित्त) जल, उसका प्राशय या पाश्रय विकटाशय या विकटाश्रय (चुल्लू भर जल) से 13 भगवन द्वारा गोशालक की रक्षा और तेजोलेश्या विधि-निर्देश कुछ लोग यह प्रश्न उठाते हैं कि भगवान ने गोशालक की रक्षा क्यों की? तथा उसे तेजोलेश्या की विधि क्यों बताई ? क्योंकि आगे चल कर गोशालक ने भगवान के दो शिष्यों का तेजोलेश्या से घात किया तथा भगवान की भी अपकीति की / इसका समाधान वत्तिकार इस प्रकार करते हैं-भगवान् दया के सागर थे। उनके मन में गोशालक के प्रति कोई द्वेषभाव या दुर्भाव नहीं था। इसलिए गोशालक की रक्षा की। सुनक्षत्र और सर्वानुभूति, इन दो मुनियों की रक्षा न करने का उनका भाव नहीं था, बल्कि उन्होंने सभी मुनियों से उस समय गोशालक के साथ किसी प्रकार का विवाद न करने की चेतावनी दी थी। फिर उस समय भगवान् वीतराग थे, इसलिए लब्धिविशेष का प्रयोग नहीं करते थे। लब्धिविशेष का प्रयोग छद्मस्थ-अवस्था में ही उन्होंने किया था / लब्धि का प्रयोग करना प्रमाद है और वीतरागअवस्था में प्रमाद हो नहीं सकता, छद्मस्थ-अवस्था में क्षम्य है। उक्त दो मुनियों की रक्षा न कर सकने का एक कारण-अवश्यम्भावी भाव था। अर्थात् भगवान् को ज्ञात था कि इन मुनियों के प्रायुष्य का अन्त इसी प्रकार होने वाला है / गोशालक द्वारा भगवान के साथ मिथ्यावाद, एकान्त परिवृत्यपरिहारवाद को मान्यता और भगवान् से पृथक् विचरण 55. तए णं अहं गोयमा ! अन्नदा कदायि गोसालेणं मखलिपुत्तेणं सद्धि कुम्मग्गामाओ नगराओ सिद्धत्थग्गामं नगरं संपत्थिए विहाराए / जाहे य मो तं देसं हव्वमागया जत्थ णं से तिलथंभए तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं एवं वदासि-"तुन्भे णं भंते ! तदा ममं एवं प्राइक्खह जाव परूबेह-गोसाला! एस णं तिलथंभए निष्फज्जिस्सति, नो न निष्फ०, तं चेव जाव पच्चायाइस्सति' तं गं मिच्छा, इमं जं पच्चक्खमेव दीसति 'एस णं से तिलथंभए णो निष्फन, अनिएफनमेव ते य सत्त तिलघुप्फजीवा उद्दाइत्ता उद्दाइत्ता नो एयस्स चेव तिलथंभगस्स एगाए तिलसंगलियाए सत्त 1. भगवती. अ. व. पत्र 668 2. संक्षिप्ता-अप्रयोगकाले. विपुला-प्रयोगकाले तेजोलेश्या-लब्धि-विशेषो यस्य स तथा ।'-.--भगवतो. प्र. बत्ति. पत्र 668 3. (क) वही, अ. वृत्ति, पत्र 668 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2391 से 2396 तक 4. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 668 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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