________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-५ ] [215 धर्मनिष्ठ होने के कारण उसे प्रसन्नता होती थी, शंका नहीं। उद्दिट्ठा- अमावस्या (उद्दिष्टा) / अहिकरण =क्रिया का साधन / ' तुंगिका में अनेक गुणसम्पन्न पापित्यीय स्थविरों का पदार्पण 12. तेणं कालेणं 2 पासावञ्चिज्जा थेरा भगवंतो जातिसंपन्ना कुलसंपन्ना बलसंपन्ना रूवसंपन्ना विणयसंपन्ना गाणसंपन्ना दंसणसंपन्ना चरित्तसंपन्ना लज्जासंपन्ना लाघवसंपन्ना प्रोयंसी तेयंसी बच्चसो जसंसी जितकोहा जियमाणा जियमाया जियलोभा जियनिद्दा जितिविया जितपरीसहा जीवियासा-मरणमय विप्पमुषका जाव' कुत्तियावणभूता बहुस्सुया बहुपरिवारा, पंचहि अणगारसतेहिं सद्धि संपरिघुडा, अहाणुवि चरमाणा, गामाणुगामं दुइज्जमाणा, सुहंसुहेणं विहरमाणा जेणेव तुंगिया नगरी, जेणेव पुष्पवतीए चेतिए तेणेव उवागच्छंति, 2 प्रहापडिरूवं उग्गहं प्रोगिण्हित्ताणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणा विहरति / [12] उस काल और उस समय में पापित्यीय (भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्यानुशिष्य स्थविर भगवान् पांच सौ अनगारों के साथ यथाक्रम से चर्या करते हुए, ग्रामानुग्राम जाते हुए, सुखपूर्वक विहार करते हुए जहाँ तुगिका नगरी थी और जहाँ (उसके बाहर ईशानकोण में) पुष्पवतिक चैत्य (उद्यान) था, वहाँ पधारे / वहाँ पधारते ही यथानुरूप अवग्रह (अपने अनुकूल मर्यादित स्थान की याचना करके आज्ञा) लेकर संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए वहाँ विहरण करने लगे। वे स्थविर भगवन्त जातिसम्पन्न, कुलसम्पन्न, बलसम्पन्न, रूपसम्पन्न, विनयसम्पन्न, ज्ञानसम्पन्न, दर्शनसम्पन्न, चारित्रसम्पन्न, लज्जासम्पन्न, लाघवसम्पन्न, ओजस्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी (विशिष्ट प्रभाव युक्त) और यशस्वी थे। उन्होंने क्रोध, मान, माया, लोभ, निद्रा, इन्द्रियों और परीषहों को जीत लिया था। वे जीवन (जीने) की आशा और मरण के भय से विमुक्त थे, यावत् (यहाँ तक कि) वे कुत्रिकापण-भूत (जैसे कुत्रिकापण में तीनों लोकों की आवश्यक समस्त वस्तुएँ मिल जाती हैं, वैसे ही वे समस्त अभीष्ट पदार्थों की प्राप्ति में समर्थ अथवा समस्त गुणों की उपलब्धि से युक्त) थे। वे बहुश्रुत और बहुपरिवार वाले थे। विवेचन–तुगिका में अनेक गुणसम्पन्न पापित्यीय स्थविरों का पदार्पण–प्रस्तुत सूत्र में अनेक श्रमणगुणों के धनी पार्श्वनाथ-शिष्यानुशिष्य श्रुतवृद्ध स्थविरों का वर्णन किया गया है। कुत्रिकापण=कु-पृथ्वी, त्रिक तीन, आपण = दूकान / अर्थात्-जिसमें तीनों लोक की वस्तुएँ मिलें, ऐसी देवाधिष्ठित दूकान को कुत्रिकापण कहते हैं। बच्चसो वर्चस्वी, व चस्वी (वाग्मी), अथवा वृत्तस्वी (वृत्त-चारित्र रूपी धन वाले)। 1. भगवतीसूत्र प्र. वृत्ति, पत्रांक 135-136 2. 'जाव' शब्द से यहाँ स्थविरों के ये विशेषण और समझ लेने चाहिए--"तवष्पहाणा गुणप्पहाणा करणप्पहाणा चरणप्पहाणा निग्गहप्पहाणा निच्छयप्पहाणा महवप्पहाणा अज्जवप्पहाणा लाघवप्पहाणा खंतिप्पहाणा मुत्तिप्पहाणा एवं विज्जा-मंत-वेय-बंभ-नय-नियम-सच्च-सोयप्पहाणा चारुप्पण्णा सोही अणियाणा अप्पुस्सुया अबहि ल्लेसा सुसामण्णरया अच्छिद्दपसिणवागरणा कुत्तियावग०" भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक 136 3. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति पत्रांक 136-137 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org