________________ 214] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र को भलीभांति उपलब्ध कर लिया था, शास्त्रों के अर्थों को (दत्तचित्त होकर) ग्रहण कर लिया था / (शास्त्रों के अर्थों में जहाँ सन्देह था, वहाँ) पूछकर उन्होंने यथार्थ निर्णय कर लिया था। उन्होंने शास्त्रों के अर्थों और उनके रहस्यों को निर्णयपूर्वक जान लिया था। उनकी हड्डियाँ और मज्जाएँ (नसें) (निर्गन्थप्रवचन के प्रति) प्रेमानुराग में रंगी हुई (व्याप्त) थीं। (इसीलिए वे कहते थे कि-) 'मायुष्मान् बन्धुओ ! यह निर्गन्थ प्रवचन ही अर्थ (सार्थक) है, यही परमार्थ है, शेष सब अनर्थ (निरर्थक) हैं।' वे इतने उदार थे कि उनके घरों में दरवाजों के पीछे रहने वाली अर्गला (पागलभोगल) सदैव ऊँची रहती थी। उनके घर के द्वार (याचकों के लिए) सदा खुले रहते थे / उनका अन्तःपुर तथा परगृह में प्रवेश (अतिधार्मिक होने से) लोकप्रीतिकर (विश्वसनीय) होता था / वे शीलवत (शिक्षाव्रत), गुणव्रत, विरमणबत (अणुव्रत), प्रत्याख्यान (त्यांग-नियम), पौषधोपवास प्रादि का सम्यक् आचरण करते थे, तथा चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा, इन पर्वतिथियों में (प्रतिमास छह) प्रतिपूर्ण पौषध का सम्यक् अनुपालन (आचरण) करते थे। वे श्रमण निर्गन्थों को (उनके कल्पानुसार) प्रासुक (अचित्त) और एषणीय (एषणा दोषों से रहित) अशन, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण, पीठ (चौकी या बाजोट) फलक (पट्टा या तख्त), शय्या, संस्तारक, औषध और भेषज आदि प्रतिलाभित करते (देते) थे; और यथाप्रतिगृहीत (अपनी शक्ति के अनुसार ग्रहण किये हुए) तपःकर्मों से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरते (जीवनयापन करते थे। विवेचन-तुगिका नगरी के श्रमणोपासकों का जीवन-प्रस्तुत दो सूत्रों (10 और 11) में से प्रथम में श्रमण भगवान् महावीर का राजगृह से अन्यत्र विहार का सूचन है, और द्वितीय में भगवान् महावीर के तुगिकानगरी निवासी श्रमणोपासकों का जीवन आर्थिक, सामाजिक, आध्यात्मिक, धार्मिक आदि विविध पहलुओं से चित्रित किया गया है। कठिन शब्दों के दूसरे अर्थ-विस्थिण्णविपुल भवण-सयणासण-जाण-वाहणाइण्णे = जिनके घर विशाल और ऊँचे थे, तथा जिनके शयन, आसन, यान और वाहन प्रचुर थे। विच्छडियविउल भत्तपाणा उनके यहाँ बहुत-सा भात-पानी (याचकों को देने के लिए) छोड़ा जाता था। अथवा जिनके यहाँ अनेक लोग भोजन करते थे, इसलिए बहुत-सा भात-पानी बचता था / अथवा जिनके यहाँ विविध प्रकार का प्रचुर खान-पान होता था। असहेज्ज-देवासुर-नाग-सुवण्ण-जवख-रक्खस-किन्नरकिंपुरिस-गरुल-गंधव-महोरगाईएहि-आपत्ति में भी देवादिगणों की सहायता से निरपेक्ष थे, अर्थात्--- 'स्वकृत कर्म स्वयं ही भोगना होगा', इस तत्त्व पर स्थित होने से वे अदीनमनोवृत्ति वाले थे / अथवा परपाषण्डियों द्वारा आक्षेपादि होने पर वे सम्यक्त्व की रक्षा के लिए दूसरों की सहायता नहीं लेते थे, क्योंकि वे स्वयं उनके आक्षेपादि निवारण में समर्थ थे। सुवपण:- अच्छे वर्ण वाले ज्योतिष्क देव / गहल - गरुड़-सुपर्णकुमार / अदिमिज्जपेमाणु रागरत्ता- उनकी हड्डियाँ और उनमें रहा हुआ धातु - मिज्जा, ये सर्वज्ञप्रवचनों पर प्रतीतिरूप कसुम्बे के रंग से रंगे हुए थे / ऊसिप्रफलिहा= अत्यन्त उदारता से अतिशय दान देने के कारण घर में भिक्षुकों के निराबाध प्रवेश के लिए जिन्होंने दरवाजे की अर्गला हटा दी थी। चियत्तं तेउर-घरप्प वेसा = जिनके अन्त:पुर या घर में कोई सत्पुरुष प्रवेश करे तो उन्हें अप्रीति नहीं होती थी, क्योंकि उन्हें ईर्ष्या नहीं होती। अथवा जिन्होंने दूसरों के अन्त:पुर या घर में प्रवेश करना छोड़ दिया था। अथवा वे किसी के घर में या अन्तःपुर में प्रवेश करें तो अतीव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org