________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-५ ] [213 बहिया उत्तरपुरत्यिमे दिसीभाए पुष्फवतीए नामं चेतिए होत्था / वण्ण नो / तत्थ गं तुगियाए नगरीए बहवे समणोवासया परिवसंति अड्डा दित्ता बिस्थिष्णविपुलभवण-सयणाऽऽसण-जाण-वाहणाइण्णा बहुधण-बहुजायरूब-रयया प्रायोग-पयोगसंपत्ता विच्छड्डियविपुलभत्त-पाणा बहुदासो-दास-गो-महिसगवेल यप्पभूता बहुजणस्स अपरिभूता अभिगतजीवाजीवा उवलद्धपुण्ण-पावा पासव-संवर-निज्जरकिरियाहिकरण-बंधमोक्खकुसला असहेज्जदेवासुर-नाग-सुवण्ण-जवख-रक्खस-किन्नर-किपुरिस-गरुलगंधव-महोरगादिएहिं देवगणेहिं निग्गंथातो पावयणातो अतिक्कमणिज्जा, णिग्गंथे पावणे निस्संकिया निषकखिता निग्वितिगच्छा लट्ठा गहितढा पुच्छितट्ठा अभिगतट्ठा विणिच्छियटा, ट्ठिमिजपेम्माणुरागरत्ता---'अयमाउसो ! निग्गंथे पावयणे अठे, अयं परमठे, सेसे अणठे,' ऊसियफलिहा अवगुतदुवारा चियत्तंतेउर-घरप्पवेसा, बहूहिं सीलवत-गुण-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासेहि चाउद्दसऽद्वमुद्दिट्टपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोतह सम्म अणुपालेमाणा, समणे निग्गंथे फासुए उणिज्जेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं वत्थ-पडिग्गह-कंबल-पादपुछणणं पीढ-फलग-सेज्जा-संथारगेणं प्रोसहभेसज्जेण य पडिलामेमाणा,' प्रहापरिम्गहिएहि तबोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणा विहरति / [11] उस काल उस समय में तुगिया (तू गिका) नाम की नगरी थी। उसका वर्णन औपपातिक सूत्र के अनुसार जानना चाहिए। उस तुगिका नगरी के बाहर उत्तर-पूर्व दिशा भाग (ईशान कोण) में पुष्पवतिक नाम का चैत्य (उद्यान) था / उसका वर्णन समझ लेना चाहिए / उस तु'गिकानगरी में बहत-से श्रमणोपासक रहते थे। वे पाढ्य (विपुल धनसम्पत्ति वाले) और दीप्त (प्रसिद्ध या दृप्त-स्वाभिमानी) थे। उनके विस्तीर्ण (विशाल) विपुल (अनेक) भवन थे। तथा वे शयनों (शयन सामग्री), आसनों, यानों (रथ, गाड़ी आदि), तथा वाहनों (बैल, घोड़े आदि) से सम्पन्न थे। उनके पास प्रचुर धन (रुपये आदि सिक्के), बहुत-सा सोना-चाँदी आदि था। वे प्रायोग (रुपया उधार देकर उसके ब्याज आदि द्वारा दुगुना तिगुना अर्थोपार्जन करने का व्यवसाय) और प्रयोग (अन्य कलानों का व्यवसाय) करने में कुशल थे। उनके यहाँ विपुल भात-पानी (खानपान) तैयार होता था, और वह अनेक लोगों को वितरित किया जाता था / उनके यहाँ बहुत-सी दासियाँ (नौकरानियाँ) और दास (नौकर-चाकर) थे; तथा बहुत-सी गायें, भैसे, भेड़ें और बकरियाँ आदि थीं। वे बहुत-से मनुष्यों द्वारा भी अपरिभूत (पराभव नहीं पाते = दबते नहीं) थे। वे जीव (चेतन) और अजीव (जड़) के स्वरूप को भलीभांति जानते थे। उन्होंने पुण्य और पाप का तत्त्व उपलब्ध कर लिया था। वे प्राश्रव, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बन्ध और मोक्ष के विषय में कुशल थे / (अर्थात्-इनमें से हेय, ज्ञेय और उपादेय को सम्यक् रूप से जानते थे।) बे (किसी भी कार्य में दूसरों से) सहायता की अपेक्षा नहीं रखते थे। (वे निर्ग्रन्थ प्रवचन में इतने दृढ़ थे कि) देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किम्पुरुष, गरुड़, गन्धर्व, महोरग, आदि देवगणों के द्वारा नियन्थप्रवचन से अनतिक्रमणीय (विचलित नहीं किये जा सकते थे। वे निर्ग्रन्थ प्रवचन के प्रति निःशंकित थे, निष्कांक्षित थे, तथा विचिकित्सारहित (फलाशंकारहित) थे / उन्होंने शास्त्रों के अर्थों 1. पाठान्तर—'बहूहि सोलवय-गुणव्वय-वेरमण-पच्चक्खाण पोसहोववासेहि अप्पाणं भावेमाणा गाउद्दसटुमुद्विद्ध पुणिमासिणीसु अधापरिग्गहितेणं पोसहोववासेणं अपाणं भावेमाणा विहति / ' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org