________________ 188] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र और सूर्यग्रहण कहलाता है।' चन्द्र को शशी-सश्री और सूर्य को प्रादित्य कहने का कारण 4. से केण?णं भंते ! एवं कुच्चद 'चंदे ससी, चंदे ससो ? गोयमा ! चंदस्स गं जोतिसिदस्स जोतिसरण्णो मियंके विमाणे, कंता देवा, कंताओ देवीप्रो, कंताई पासण-सयण-खंभ-भंडमत्तोवगरणाई, अप्पणा वि य णं चंदे जोतिसिंदे जोतिसराया सोमे कते सुभए पियदसणे सुरूदे, सेतेणढणं जाव ससी। [4 प्र. भगवन् ! चन्द्रमा को- चन्द्र शशी (सश्री) है', ऐसा क्यों कहा जाता है ? [4 प्र.] गौतम ! ज्योतिषियों के इन्द्र, ज्योतिषियों के राजा चन्द्र का विमान मृगांक (मृग चिह्न वाला) है, उसमें कान्त देव तथा कान्ता देवियाँ हैं, और प्रासन, शयन, स्तम्भ, भाण्ड, पात्र आदि उपकरण (भी) कान्त हैं / स्वयं ज्योतिष्कों का इन्द्र, ज्योतिष्कों का राजा चन्द्र भी सौम्य, कान्त, सुभग, प्रियदर्शन और सुरूप है, इसलिए ही, हे गौतम ! चन्द्रमा को शशी (सश्री-शोभायुक्त) कहा जाता है / 5. से केणढणं भंते ! एवं वुच्चइ 'सूरे आदिच्चे, सूरे आदिच्चे' ? गोयमा ! सूरादीया गं समया इ वा आवलिया इ वा जाव ओसप्पिणी इ वा, उस्सप्पिणी इ वा / सेतेण?णं जाव आदिच्चे। [5 प्र.] भगवन् ! सूर्य को–'सूर्य आदित्य है', ऐसा क्यों कहा जाता है ? [5 उ.] गौतम ! समय अथवा प्रावलिका यावत् अथवा अवसर्पिणी या उत्सपिणी (इत्यादि काल) की प्रादि सूर्य से होती है, इसलिए इसे आदित्य कहते हैं / विवेचन-शाशी और सभी : अभिधान का कारण-शश का अर्थ है मृग। शश (मृग) का चिह्न होने से इसे शशी, शशांक---मृगांक कहते हैं / शशी का रूपान्तर 'सश्री' भी होता है / सश्री का अर्थ है-शोभासहित / चन्द्र-विमान के देव, देवी, तथा समस्त उपकरण कान्त-कमनीय अर्थात्शोभनीय होते हैं, इस कारण इसे सश्री भी कहते हैं। सूर्य को 'आदित्य' कहने का कारण-चू कि समय, आवलिका, दिन, रात, सप्ताह, पक्ष, मास, वर्ष यावत उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी प्रादि समस्त कालों का आदिभूत (प्रथम कारण) सूर्य है / सूर्य को लेकर ही सर्वप्रथम यह सब काल विभाग होता है / इसलिए इसे आदित्य कहा गया है। 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 577 (I) किण्ह राहुविमाणं निच्चं चंदेण होइ अविरहियं / चउरंगुलमप्पत्तं हेट्ठा चंदस्स तं चरइ / / (II) यस्तु पर्वणि-पौर्णमास्यामावस्ययोश्शन्द्रादित्ययोरुपरामं करोति स पर्वराहुरिति / (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 4, पृ. 2066 2. (क) भगवती. अ. वृत्ति पत्र 578 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 4, पृ. 2066 3. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 578 (ख) सूर्यप्रज्ञप्ति प्राभृत 20, पत्र 292, प्रागमोदय. / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org