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________________ तृतीय शतक : उद्देशक-11 [293 1. असुरकुमार देवगण द्वारा तामली तापस (वर्तमान में ईशानेन्द्र) के शव की होती हुई दुर्दशा देख ईशानकल्पवासी वैमानिकदेवगण ने अत्यन्त कुपित होकर अपने सद्यःजात ईशानेन्द्र को वस्तुस्थिति से अवगत कराया। 2. सुनकर देवशय्या स्थित कुपित ईशानेन्द्र ने बलिचंचाराजधानी को तेजोलेश्यापूर्ण दृष्टि से देखा / बलिचंचा जाज्वल्यमान अग्निसम तप्त हो गई। 3. बलिचंचा-निवासी असुर अपनी निवासभूमि को अत्यन्त तप्त देख भय त्रस्त होकर कांपने तथा इधर-उधर भागने लगे / 4. ईशानेन्द्र की तेजोलेश्या का प्रभाव असह्य होने से वे मिलकर उससे अनुनय-विनय करने तथा अपने अपराध के लिए क्षमायाचना करने लगे। 5. इस प्रकार असुरों द्वारा की गई क्षमायाचना से ईशानेन्द्र ने करुणा होकर अपनी तेजोलेश्या वापस खींच ली / बलिचंचाराजधानी में शान्ति हो गई। 6. तब से बलिचंचा के असुरगण ईशानेन्द्र का प्रादर-सत्कार एवं विनयभक्ति करने लगे, और उनकी प्राज्ञा, सेवा एवं प्रादेश में तत्पर रहने लगे। 7. भ. महावीर ने गौतम द्वारा ईशानेन्द्र की देवऋद्धि आदि से सम्बन्धित प्रश्न के उत्तर का उपसंहार किया। कठिन शब्दों के विशिष्ट अर्थ-तिवलियं भिउडिनिडालेसाहटु - ललाट में तीन रेखाएं (सल) पड़ जाएं, इस प्रकार से भ्र कुटि चढ़ा कर / तत्तकवेलगभूया = तपे हुए कवेलू (कड़ाही या तवा) या रेत जैसी। तत्तसमजोइयभूया = अत्यन्त तपी हुई लाय, अग्नि की लपट या साक्षात् अग्निराशि या ज्योति के समान / प्राकड्ढ-विकड्ढि करेंति = मनचाहा आड़ा-टेढ़ा या इधर-उधर खींचते या घसीटते हैं / समतुरंगेमाणा-एक दूसरे से चिपटते या एक दूसरे की ओट में छिपते हुए। प्राणा- तुम्हें यह कार्य करना ही है, इस प्रकार का आदेश, उववाय = पास में रहकर सेवा करना, वयूण = प्राज्ञापूर्वक आदेश, निद्देस पूछे हुए कार्य के सम्बन्ध में नियत उत्तर / 2 ईशानेन्द्र की स्थिति तथा परम्परा से मुक्त हो जाने की प्ररूपरणा--- 53. ईसाणस्स णं भंते ! देविंदस्स देवरण्णो केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! सातिरेगाई दो सागरोवमाई ठिती पन्नत्ता। [53 प्र] भगवन् ! देवेन्द्र देव राज ईशान की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [53 उ.] गौतम ! ईशानेन्द्र की स्थिति दो सागरोपम से कुछ अधिक की कही गई है। 1. (क) वियाहपण्णत्तिसुत्त (मूलपाठ टिप्पणयुक्त) (ख) (पं. बेचरदासजी) भा. 1, पृ. 136-137 2. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक 167 (ख) भगवती विवेचन (पं. घेवरचन्दजी) भा. 2, पृ. 588 से 592 तक (ग) श्रीमद्भगवती सूत्र (टीका-अनुवाद सहित) (पं. बेचरदासजी) खण्ड 2, पृ. 45 (घ) भगवती सूत्र प्रमेयचन्द्रिका टीका (पू. घासीलालजी म.) भा. 3, पृ. 265 से 272 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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