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________________ 292] व्याख्याप्रज्ञप्तिसून अभिसमन्नागया। तं खामेमो णं देवाणुप्पिया!, खमंतु गं देवाणुप्पिया!, खंतुमरिहंति णं देवाणुप्पिया ! , णाइ भुज्जो एवंकरणयाए त्ति कट्ट एयम8 सम्म विणयेणं भुज्जो 2 खामेंति / [50] ऐसी दुःस्थिति हो गई, तब बलिचंचा-राजधानी के बहुत-से असुरकुमार देवों और देवियों ने यह जानकर कि देवेन्द्र देवराज ईशान के परिकुपित होने से (हमारी राजधानी इस प्रकार आग-सी तप्त हो गई है); वे सब असुरकुमार देवगण, ईशानेन्द्र (देवेन्द्र देवराज) को उस दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवद्युति, दिव्य देवप्रभाव, और दिव्य तेजोलेश्या को सहन न करते हुए देवेन्द्र देवराज ईशान के चारों दिशाओं में और चारों विदिशाओं में ठीक सामने खड़े होकर (ऊपर की ओर मुख करके दसों नख इकट्ठे हों, इस तरह से दोनों हाथ जोड़कर शिरसावर्तयुक्त मस्तक पर अंजलि करके ईशानेन्द्र को जय-विजय-शब्दों (के उच्चारणपूर्वक) बधाने लगे-- अभिनन्दन करने लगे। अभिनन्दन करके वे इस प्रकार बोले-'अहो ! (धन्य है ! ) आप देवानुप्रिय ने दिव्य देव-ऋद्धि यावत् उपलब्ध की है, प्राप्त को है, और अभिमुख कर ली है ! हमने आपके द्वारा उपलब्ध, प्राप्त और अभिसमन्वागत (सम्मुख की हुई) दिव्य देवऋद्धि को, यावत् देवप्रभाव को प्रत्यक्ष देख लिया है। अतः हे देवानुप्रिय ! (अपने अपराध के लिए) हम आप से क्षमा मांगते हैं / आप देवानुप्रिय हमें क्षमा करें। आप देवानुप्रिय हमें क्षमा करने योग्य हैं। (भविष्य में) फिर कभी इस प्रकार नहीं करेंगे।' इस प्रकार निवेदन करके उन्होंने ईशानेन्द्र से अपने अपराध के लिए विनयपूर्वक अच्छी तरह बार-बार क्षमा मांगी। 51. तते णं से ईसाणे देविदे देवराया तेहिं बलिचंचारायहाणीवत्थव्वएहि बहूहि असुरकुमारेहि देहि देवीहि य एयमट्ठ सम्म विणएणं भुज्जो 2 खामिए समाणे तं दिव्वं देविडि जाव तेयलेस्सं पडिसाहरइ / तप्पभिति च णं गोयमा ! ते बलिचंचारायहाणिवत्यव्वया बहवे असुरकुमारा देवा य देवोनो य ईसाणं देविदं देवरायं पाढंति जाव पज्जुवासंति, ईसाणस्स य देविंदस्स देवरणो प्राणा-उववाय-वयण-निद्दे से चिट्ठति / 51] अब जबकि बलिचंचा-राजधानी-निवासी उन बहुत-से असुरकुमार देवों और देवियों ने देवेन्द्र देवराज ईशान से अपने अपराध के लिए सम्यक् विनयपूर्वक बार-बार क्षमायाचना कर ली, तब ईशानेन्द्र ने उस दिव्य देव ऋद्धि यावत् छोड़ी हुई तेजोलेश्या को वापस खींच (समेट) ली। हे गौतम ! तब से बलिचंचा-राजधानी-निवासी वे बहुत-से असुरकुमार देव और देवीवन्द देवेन्द्र देवराज ईशान का आदर करते हैं यावत् उसकी पर्युपासना (सेवा) करते हैं। (और तभी से वे) देवेन्द्र देवराज ईशान की आज्ञा और सेवा में, तथा आदेश और निर्देश में रहते हैं। 52. एवं खलु गोयमा ! ईसाणेणं देविदेणं देवरण्णा सा दिवा देविड्ढी जाव अभिसमन्नागया / [52] हे गौतम ! देवेन्द्र देवराज ईशान ने वह दिव्य देवऋद्धि यावत् इस प्रकार लब्ध, प्राप्त और अभिसमन्वागत की है। विवेचन-ईशानेन्द्र के प्रकोप से उत्तप्त एवं भयभीत प्रसुरों द्वारा क्षमायाचना-इन छह सूत्रों (47 से 52 सू. तक) में ईशानेन्द्र से सम्बन्धित सात मुख्य वृत्तान्त शास्त्रकार ने प्रस्तुत किये हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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