________________ नवम शतक : उद्देशक-३१ ] [435 [2] से केणठेणं भंते ! जाब नो बुज्झज्जा ? गोयमा ! जस्स णं दरिसणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ से णं असोच्चा केबलिस्स वा जाव केवलं बोहिं बुज्झज्जा, जस्स णं दरिसणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे णो कडे भवइ से णं असोच्चा केबलिस्स वा जाब केवलं बोहि णो बुझज्जा, से तेणठेणं जाव णो बुझेज्जा / |3-2 प्र.| भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि यावत् शुद्ध बोधि प्राप्त नहीं कर पाते ? |3-2 उ. हे गौतम ! जिस जीन ने दर्शनावरणीय (दर्शन-मोहनीय) कर्म का क्षयोपशम किया है, वह जीव केवली यावत् केवलि-पाक्षिक उपासिका से सुने बिना ही शुद्ध बोधि प्राप्त कर लेता है, किन्तु जिस जीव ने दर्शनावरणीय कर्मों का क्षयोपशम नहीं किया है, उस जीव को केवली यावत् केवलि-पाक्षिक की उपासिका से सुने विना शुद्ध बोधि का लाभ नहीं होता। इसी कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि यावत् किसी को सुने बिना शुद्ध बोधिलाभ नहीं होता। विवेचन-शुद्ध बोधिलाभ सम्बन्धी प्रश्नोत्तर–प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि केवली आदि दस साधकों से धर्म सुने विना ही शुद्ध बोधिलाभ उसी को होता है, जिसने दर्शन-मोहनीय कर्म का क्षयोपशम किया हो, जिसने दर्शनमोहनीय का क्षयोपशम नहीं किया, उसे शुद्ध बोधिलाभ नहीं होता।' कतिपय शब्दों के भावार्थ केवलं बोहि बुझज्जा केवल = शुद्ध बोधि = शुद्ध सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेता है = अनुभव करता है / दरिसणावरणिज्जाणं कम्माण = यहाँ 'दर्शनावरणीय' से दर्शनमोहनीय कर्म का ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि बोधि, सम्यग्दर्शन का पर्यायवाची शब्द है। अतः सम्यग्दर्शन (बोधि) का लाभ दर्शनमोहनीयकर्म क्षयोपशमजन्य है। केवली आदि से शुद्ध प्रनगारिता का ग्रहण-अग्रहण 4. [1] असोच्चा णं भंते ! केवलिस्स वा जाव तप्पविखय उवासियाए वा केवलं मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वएज्जा? गोयमा ! असोच्चा णं केवलिस्स वा जाव उवासियाए वा अत्थेगतिए केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइज्जा, अत्थेगतिए केवलं मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं नो पच्चएज्जा। [4-1 प्र.] भगवन् ! केवली यावत् केवलि-पाक्षिक-उपासिका से सुने विना ही क्या कोई जीव केवल मुण्डित हो कर अगारवास त्याग कर अनगारधर्म में प्रवजित हो सकता है ? [4-1 उ. | गौतम ! केवली यावत् केवलि-पाक्षिक-उपासिका से सुने विना ही कोई जीव मुण्डित होकर अगारवास छोड़कर शुद्ध या सम्पूर्ण अनगारिता में प्रवजित हो पाता है, और कोई प्रव्रजित नहीं हो पाता। 1. भगवती. अ. वृत्ति का निष्कर्ष, पत्र 432 2. वही, अ. वृत्ति, पत्र 432 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org