________________ 434 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 2-2 उ.] गौतम ! जिस जीव ने ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम किया हुआ है, उसको केवली यावत् केवलि-पाक्षिक की उपासिका (इन) में से किसी से सुने बिना ही केवलि-प्ररूपित धर्म लाभ होता है और जिस जीब ने ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं किया हना है, उसे केवली यावत केवलि-पाक्षिक की उपासिका से सूने विना केवलि-प्ररूपित धर्म-श्रवण का लाभ नहीं होता। हे गौतम ! इसी कारण ऐसा कहा गया कि यावत् किसी को धर्म-श्रवण का लाभ होता है और किसी को नहीं होता। विवेचन--केवली इत्यादि शब्दों का भावार्थ केवलिस्स—जिन अथवा तीर्थकर / केवलिश्रावक-जिसने केवली भगवान् से स्वयमेव पूछा है, अथवा उनके बचन सुने हैं, वह / केवलिउपासक केवली की उपासना करने वाले अथवा केवली द्वारा दूसरे को कहे गए वचन को सुनकर बना हुआ उपासक भक्त / केवलि-पाक्षिक-केवलि-पाक्षिक अर्थात् स्वयम्बुद्धकेवली / / ___ असोच्चा धम्म लभेज्जा सवणयाए—(उपर्युक्त दस में से किसी के पास से) धर्मफलादिप्रतिपादक वचन को सुने विना ही अर्थात्--स्वाभाविक धर्मानुराग-वश होकर ही (केवलिप्ररूपित) श्रुत-चारित्ररूप धर्म सुन पाता है, अर्थात्---श्रावणरूप से धर्म-लाभ प्राप्त करता है। प्राशय यह है कि वह धर्म का बोध पाता है / नाणावरणिज्जाणं "खओवसमे-ज्ञानावरणीयकर्म के मतिज्ञानावरणीय आदि भेदों के कारण तथा मतिज्ञानावरण के भी अवग्रहादि अनेक भेद होने से यहाँ बहुवचन का प्रयोग किया गया है / क्षयोपशम शब्द का प्रयोग करने के कारण यहाँ मतिज्ञानावरणीयादि चार ज्ञानावरणीय कर्म ही ग्राह्य हैं, केवलज्ञानावरण नहीं, क्योंकि उसका क्षयोपशम नहीं, क्षय ही होता है / पर्वतीय नदी में लुढकते-लुढकते गोल बने हुए पाषाणखण्ड की तरह किसी-किसी के स्वाभाविक रूप से ज्ञानावरणीयकर्म का क्षयोपशम हो जाता है। ऐसी स्थिति में इन दस में से किसी से विना सुने हो धर्मश्रवण प्राप्त कर लेता है / धर्मश्रवणलाभ में ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम अन्तरंग कारण है। केवली प्रादि से शुद्धबोधि का लामालाभ--- 3. [1] असोच्चा णं भंते ! केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलं बोहि बुज्झज्जा? गोयमा ! असोच्चा णं केवलिस्स वा जाव अत्यंगतिए केवलं बोहि बुझज्जा, अत्थेगइए केवलं बोहि गो बुज्झज्जा। 13-1 प्र. भगवन् ! केवली यावत् केवलि-पाक्षिक की उपासिका से सुने विना ही क्या कोई जीव शुद्धबोधि (सम्यग्दर्शन) प्राप्त कर लेता है ? [3-1 उ.] गौतम ! केवली यावत् केवलि-पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना ही कई जीव शुद्ध बोधि प्राप्त कर लेते हैं और कई जीव प्राप्त नहीं कर पाते / 1. भगवती. अ, बृत्ति, पत्र 43: 2. बही, पत्र 432 3. वहीं, पत्र 432 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org