SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1628
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चौदहवां शतक : उद्देशक 1] [18 प्र. भगवन् ! अनन्तर-परम्पर-निर्गत नैरयिक, क्या नारकायुष्य बांधते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [18 उ.] गौतम ! वे न तो नारकायुष्य बांधते, यावत् न देवायुष्य बांधते हैं / 19. निरवसेसं जाव वेमाणिया। [16] इसी प्रकार शेष सभी कथन यावत् बैमानिक तक करना चाहिए / विवेचन-निष्कर्ष परम्पर-निर्गत सभी जीव सर्वगतियों का आयुष्य बांधते हैं; क्योंकि परम्पर-निर्गत नै रयिक, मनुष्य और तिर्यञ्च-पंचेन्द्रिय ही होते हैं। वे सर्वायुबन्धक होते हैं / इस प्रकार परम्पर-निर्गत सभी वैक्रिय जन्म वाले जीव (अर्थात्-देव और नैरयिक) तथा औदारिक जन्म बाले कितने ही जीव मनुष्य और तिर्यञ्च होते हैं। इसलिए परम्परनिर्गत जीव सभी गति का प्रायुष्य बांधते हैं।' चौवीस दण्डकों में अनन्तरखेदोपपन्नादि अनन्तरखेदनिर्गतादि एवं आयुष्यबन्ध की प्ररूपमा 20. नेरइया णं भंते ! कि अणंतरखेदोववन्नगा, परंपरखेदोक्वन्नगा, अणंतरपरंपरखेदाणुवनगा? गोयमा ! नेरइया०, एवं एतेणं अभिलावेणं ते चेव चत्तारि दंडगा भाणियचा / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरति / // चोद्दसमे सए पढमो उद्देसओ समतो // 14-1 // [20 प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीव क्या अनन्तर-खेदोपपन्न हैं, परम्पर-खेदोपपन्न हैं अथवा अनन्तरपरम्परा-खेदानुपपन्न हैं ? 20 उ.] गौतम नैरयिक जीव, अनन्तर-खेदोपपन्न भी हैं, परम्पर-खेदोपपन्न भी हैं और अनन्तर-परम्पर-खेदानुपपन्नक भी हैं / इस अभिलाप द्वारा वे ही पूर्वोक्त चार दण्डक कहने चाहिए / हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कह कर यावत् गौतमस्वामी विचरते हैं। विवेचन–अनन्तर-खेदोपपन्नक-उत्पत्ति के प्रथम समय में ही जिनकी उत्पत्ति दुःखयुक्त है। परम्पर-खेदोपपन्नक–जिनकी खेदयुक्त उत्पत्ति में दो-तीन आदि समय व्यतीत हो चके हैं, वे / अनन्तर-परम्पर-खेदानुपपन्नक-जिनकी अनन्तर अथवा परम्पर खेदयुक्त उत्पत्ति नहीं है, वे। ऐसे जीव विग्रहगतिवर्ती होते हैं। 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 634 .. 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 634 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy