________________ 146] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र के नैरयिकों) में उत्पन्न हो, तो वह जघन्य और उत्कृष्ट दस हजार वर्ष की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है। 73. ते णं भंते ! जीवा० ? - सो चेव सत्तमो गमलो निरक्सेसो भाणियन्वो जाव भवादेसो त्ति / कालादेसेणं जहानेणं पुवकोडी दसहि वाससहस्सेहि अमहिया, उक्कोसेणं चत्तारि पुव्वकोडीनो चत्तालीसाए वाससहसेहिं अब्भहिमानो; एवतियं जाव करेज्जा। [सु०७२–७३ अदुमो गमश्रो]। [73 प्र.] भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [73 उ.] गौतम ! (परिमाण से लेकर भवादेशपर्यन्त) सम्पूर्ण सप्तम गमक कहना चाहिए / काल की अपेक्षा से, जघन्य दस हजार वर्ष अधिक पूर्वकोटि वर्ष और उत्कृष्ट चालीस हजार वर्ष अधिक पूर्वकोटिवर्ष तक यावत् गमनागमन करता है / [सू. 72-73 अष्टम गमक] 74. उक्कोसकाल द्वितीयपज्जत्ता जाव तिरिक्ख जोणिए णं भंते ! जे भविए उक्कोसकालद्वितीय जाव उववज्जित्तए से गं भंते ! केवतिकाल द्वितीएसु उववज्जेज्जा? गोयमा ! जहन्नेणं सागरोवमद्वितीएसु, उक्कोसेण वि सागरोवमद्वितीएसु उववज्जेज्जा। [74 प्र.] भगवन् ! उत्कृष्ट काल की स्थिति वाला पर्याप्त यावत........." तिर्यञ्चयोनिक, जो उत्कृष्ट स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? [74 उ.] गौतम ! बह जघन्य और उत्कृष्ट एक सागरोपम की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है। 75. ते णं भंते ! जीवा ? सो चेव सत्तमगमत्रो निरवसेसो भाणियन्वो जाव भवादेसो त्ति। कालादेसेणं जहन्नेणं सागरोवमं पुत्वकोडीए अभहियं, उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाई चहि पुवकोडीहिं अभहियाई; एवइयं जाव करेज्जा। [सु०७४-७५ नवमो गमओ]। [75 प्र.] भगवन् ! वे जीव (एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? ) इत्यादि प्रश्न / [75 उ.] गौतम ! परिमाण से लेकर भवादेश तक के लिए वही पूर्वोक्त सप्तम गमक सम्पूर्ण कहना चाहिये / काल की अपेक्षा से जघन्य पूर्वकोटि अधिक सागरोपम और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक चार सागरोपम काल तक यावत् गमनागमन करता है / [74-75 नौवाँ गमक] 76. एवं एते नव गमगा उक्खेवनिक्खेवभो नवसु वि जहेव असन्नीणं / [76] इस प्रकार ये नौ गमक होते हैं; और इन नौ ही गमकों का प्रारम्भ और उपसंहार (उत्क्षेप और निक्षेप) असंज्ञी जीवों के समान (कहना चाहिए।) विवेचन-नौ गमक—यहाँ पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक की अपेक्षा से रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों की उत्पत्ति-सम्बन्धी नौ गमक कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं--(१) औधिक (सामान्य) संज्ञी तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय का, औधिक नैरयिकों में उत्पन्न होने रूप प्रथम गमक है। (2) जघन्य स्थिति वाले नै रयिकों में उत्पन्न होने रूप दूसरा गमक है। (3) उत्कृष्ट स्थिात वाले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org