________________ छठा शतक : उद्देशक-३] [19 कायिक (एकेन्द्रिय पंचस्थावर) जीवों तक के एक प्रकार के (काय) प्रयोग से (कर्मपुद्गलोपचय होता है।) विकलेन्द्रिय जीवों के दो प्रकार के प्रयोग होते हैं, यथा-वचन-प्रयोग और काय-प्रयोग / इस प्रकार उनके इन दो प्रयोगों से कर्म (पुद्गलों) का उपचय होता है / अतः समस्त जीवों के कर्मोपचय प्रयोग से होता है, स्वाभाविक-रूप से नहीं / इसी कारण से कहा गया है कि "यावत् स्वाभाविक रूप से नहीं होता। इस प्रकार जिस जीव का जो प्रयोग हो, वह कहना चाहिए / यावत् वैमानिक तक (यथायोग्य) प्रयोगों से कर्मोपचय का कथन करना चाहिए। विवेचन-वस्त्र में पुद्गलोपचय की तरह, समस्त जीवों के कर्मपुद्गलोपचय प्रयोग से या स्वभाव से ? प्रस्तुत सूत्रद्वय में वस्त्र में पुद्गलोपचय की तरह जीवों के कार्मोपचय उभयविध न होकर प्रयोग से ही होता है, इसकी सकारण प्ररूपणा की गई है। 'पयोगसा'—प्रयोग से-जीव के प्रयत्न से और वीससा-विश्रसा का अर्थ है-विना ही प्रयत्न के-स्वाभाविक रूप से। निष्कर्ष-संसार के समस्त जीवों के कर्मपुद्गलों का उपचय प्रयोग-स्वप्रयत्न से होता है, स्वाभाविक रूप (काल, स्वभाव, नियति आदि) से नहीं ! अगर ऐसा नहीं माना जाएगा तो सिद्ध जीव योगरहित हैं, उनके भी कर्मपुद्गलों का उपचय होने लगेगा, परन्तु यह सम्भव नहीं / अतः कर्मपुद्गलोपचय मन, वचन और काया इन तीनों प्रयोगों में से किसी एक, दो या तीनों से होता है, यही युक्तियुक्त सिद्धान्त है।' तृतीय द्वार-वस्त्र के पुद्गलोपचयवत् जीवों के कर्मोपचय को सादि-सान्तता आदि का विचार 6. वत्थस्स णं भंते ! पोग्गलोवचए कि सादीए सपज्जवसिते ? सादीए अपज्जवसिते? अणादीए सपज्जवसिते? अणादीए अपज्जवसिते ? गोयमा ! वत्थस्स णं पोग्गलोवचए सादीए सपज्जवसिते, नो सादीए अपज्जवसिते, नो प्रणादीए सपज्जवसिते, नो प्रणादीए अपज्जवसिते / [6 प्र.] भगवन् ! वस्त्र में पुद्गलों का जो उपचय होता है, वह सादि सान्त है, सादि अनन्त है, अनादि सान्त है, अथवा अनादि अनन्त है ? [6 उ.] गौतम ! वस्त्र में पुद्गलों का जो उपचय होता है, वह सादि सान्त होता है, किन्तु न तो वह सादि अनन्त होता है, न अनादि सान्त होता है और न अनादि अनन्त होता है। 7. [1] जहा णं भंते ! वस्थस्स पोग्गलोवचए सादीए सपज्जवसिते, नो सादीए अपज्जवसिते, नो अणादीए सपज्जवसिते, नो अणादोए अपज्जवसिते तहा णं जीवाणं कम्मोवचए पुच्छा। गोयमा ! प्रत्थेगइयाणं जीवाणं कम्मोवचए साईए सपज्जवसिते, अत्थे० प्रणाईए सपज्जवसिए, प्रत्थे० प्रणाईए अपज्जवसिए, नो चेव णं जीवाणं कम्मोवचए सादीए अपज्जवसिते / 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 254 (ख) भगवती. (टीकानुवाद-टिप्पणयुक्त) खण्ड 2, पृ. 274 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org