________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र * छठे उद्देशक में चौबीस दण्डकों के आवास, विमान आदि की संख्या का, तथा मारणान्तिक / समुद्घातसमवहत जीव के आहारादि से सम्बन्धित निरूपण किया गया है / * सातवें उद्देशक में कोठे आदि में रखे हुए शालि आदि विविधधान्यों की योनि स्थिति की तथा मुहूत्र्त से लेकर शीर्षप्रहेलिका पर्यन्त गणितयोग्य कालपरिमाण की और पल्योपम-सागरोपमादि औपमिककाल की प्ररूपणा की गई है। अन्त में सुषमसुषमाकालीन भारत के जीव-अजीबों के भावादि का वर्णन किया गया है / * प्राठवें उद्देशक में रत्नप्रभादि पृथ्वियों तथा सर्वदेवलोकों में गह-ग्राम-मेघादि के अस्तित्व. कर्तृत्व-की, जीवों के आयुष्यबन्ध एवं जातिनामनिधत्तादि बारह दण्डकों की, लवणादि असंख्य द्वीप-समुद्रों के स्वरूप एवं प्रमाण की तथा द्वीप-समुद्रों के शुभ नामों की प्ररूपणा की गई है। नौवें उद्देशक में ज्ञानावरणीय कर्म के बन्ध के साथ अन्यकों के बन्धका, बाह्यपुद्गल-ग्रहणपूर्वक महद्धिकादि देव के द्वारा एकवर्णादि के पुद्गलों के अन्यवर्णादि में विकुर्वण-परिणमनसम्बन्धी सामर्थ्य का, तथा अविशुद्ध-विशुद्ध लेश्यायुक्त देवों द्वारा अविशुद्ध-विशुद्ध लेश्यावाले देवादि को जानने-देखने के सामर्थ्य का निरूपण किया गया है। दश उद्देशक में अन्यतीथिक मत-निराकरणपूर्वक सम्पूर्ण लोकवर्ती सर्वजीवों के सुख-दुःख को अणुमात्र भी दिखाने की असमर्थता की स्वमतप्ररूपणा, जीव के स्वरूपनिर्णय से सम्बन्धित प्रश्नोत्तरी, एकान्त दुःखवेदनरूप अन्यतीथिकमतनिराकरणपूर्वक अनेकान्तशैली से सुखदुःखादिवेदनप्ररूपणा तथा जीवों द्वारा आत्मशरीरक्षेत्रावगाढ-पुद्गलाहार की प्ररूपणा की गई है। अन्त में, केवली के प्रात्मा द्वारा ही ज्ञान-दर्शन-सामर्थ्य की प्ररूपणा की गई है।' DO 1. (क) भगवतीसूत्र (टीकानुवाद-टिप्पणयुक्त) खण्ड 2, 'अनुक्रमणिका' पृ-५ से 7 तक (ख) वियाहपण्णत्तिसुत्तं, (मूलपाठटिप्पणयुक्त) भा. 1 'विसयाणुक्कमो' पृ. 40 से 44 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org