________________ छट्ट सयं : छठा शतक प्राथमिक * व्याख्याप्रज्ञप्ति-भगवतीसूत्र के इस शतक में वेदना, आहार, महाश्रव, सप्रदेश, तमस्काय, भव्य, शाली, पृथ्वी, कर्म एवं अन्ययूथिकवक्तव्यता आदि विषयों पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डाला गया है। * इस छठे शतक में भी पूर्ववत् दस उद्देशक हैं / * प्रथम उद्देशक में महावेदना और महानिर्जरा में प्रशस्तनिर्जरा वाले जीव को विभिन्न दृष्टान्तों द्वारा श्रेष्ठ सिद्ध किया गया है, तत्पश्चात् चतुविधकरण की अपेक्षा जीवों के साता-असाता वेदन की प्ररूपणा की गई है और अन्त में, जीवों में वेदना और निर्जरा से सम्बन्धित चतुभंगी की प्ररूपणा की गई है। * द्वितीय उद्देशक में जीवों के प्राहार के सम्बन्ध में प्रज्ञापनासूत्र के अतिदेशपूर्वक वर्णन किया गया है। तृतीय उद्देशक में महाकर्म आदि से युक्त जीव के साथ पुद्गलों के बन्ध, चय, उपचय और अशुभ रूप में परिणमन का तथा अल्पकर्म आदि से युक्त जीव के साथ पुद्गलों के भेद-छेद, विध्वंस आदि का तथा शुभरूप में परिणमन का दृष्टान्तद्वयपूर्वक निरूपण है, द्वितीय द्वार में वस्त्र में पुद्गलोपचयवत् प्रयोग से समस्त जीवों के कर्म-पुद्गलोपचय का, तृतीयद्वार में जीवों के कर्मोपचय को सादिसान्तता का, जीवों की सादिसान्तता आदि चतुर्भगी का, चतुर्थद्वार में अष्टकर्मों की बन्धस्थिति आदि का, पंचम द्वार से उन्नीसवें द्वार तक स्त्री-पुरुषनपुंसक आदि विभिन्न विशिष्ट कर्मबन्धक जीवों की अपेक्षा से अष्टकर्म प्रकृतियों के बन्धअबन्ध का विचार किया गया है / और अन्त में, पूर्वोक्त 15 द्वारों में उक्त जीवों के अल्पबहुत्व का निरूपण है। * चतुर्थ उद्देशक में कालादेश की अपेक्षा सामान्य चौबीस दण्डकवर्ती जीव, आहारक, भव्य, संज्ञी, लेश्यावान्, दृष्टि, संयत, सकषाय, सयोगी, उपयोगी, सवेदक, सशरीरी, पर्याप्तक आदि विशिष्ट जोवों में 14 द्वारों के माध्यम से सप्रदेशत्व-अप्रदेशत्व का निरूपण किया गया है। अन्त में, समस्त जीवों के प्रत्याख्यानी अप्रत्याख्यानी या प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी होने, जानने, करने और आयुष्य बांधने के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर हैं। * पंचम उद्देशक में विभिन्न पहलुओं से तमस्काय और कृष्णराजियों के सम्बन्ध में सांगोपांग वर्णन है, अन्त में लोकान्तिक देवों से सम्बन्धित विमान, देवपरिवार, विमानसंस्थान आदि का वर्णन है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org