________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र के समान उसके रोमकूप विकसित हो गए / बल राजा ने अपने मुकुट को छोड़ कर धारण किये हुए शेष सभी आभरण उन अंगपरिचारिकाओं को (पारितोषिकरूप में) दे दिये / फिर सफेद चांदी का निर्मल जल से भरा हुआ कलश ले कर उन दासियों का मस्तक धोया अर्थात् उन्हें दासीपन से मुक्तस्वतंत्र कर दिया / उनका सत्कार-सम्मान किया और उन्हें विदा किया। विवेचन–पुत्रजन्म, बधाई, राजा द्वारा प्रीतिदान–प्रस्तुत तीन सूत्रों (37 से 36 तक) में तीन घटनाओं का निरूपण किया गया है-(१) प्रभावती रानी के पुत्र का जन्म, (2) अंगपरिचारिकाओं द्वारा बल राजा को बधाई और (3) बल राजा द्वारा दासियों का मस्तक-प्रक्षालन अर्थात पुत्रजन्म के हर्ष में उन्हें दासत्व से मुक्त करना, जीविकायोग्य प्रीतिदान देना और सत्कारसम्मानपूर्वक विसर्जन / ' कठिन शब्दों का भावार्थ-अट्ठमाण य राइंदियाण-साढ़े सात रात्रिदिन। अंगपडियारियाओ-अंगपरिचारिकाएँ-दासियाँ, सेविकाएँ / पियट्ठताए -प्रीति के लिए। मउडवज्ज-मुकुट के सिवाय / जहामालियं-जिस प्रकार (जो) धारण किये हुए (पहने हुए) था। ओमोयं—आभूषण / दलयति - दे देता है। ___ अंग-परिचारिकाओं का मस्तक धोने की क्रिया, उनको दासत्व से मुक्त करने की प्रतीक है / जिस दासी का मस्तक धो दिया जाता था, उसे उस युग में दासत्व से मुक्त समझा जाता था। पुत्रजन्म-महोत्सव एवं नामकरण का वर्णन 40. तए णं से बले राया कोडुबियपुरिसे सद्दावेति, को० स० एवं वदासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! हस्थिणापुरे नगरे चारगसोहणं करेह, चा० क० 2 माणुम्माणवट्टणं करेह, मा० 0 2 हथिणापुरं नगरं सभितरबाहिरियं आसियसम्मज्जियोवलितं जाव करेह य कारवेह य, करेत्ता य कारवेत्ता य, जूवसहस्सं वा, चक्कसहस्सं वा, पूयामहामहिमसक्कारं वा ऊसवेह, ऊ० 2 ममेतमाणत्तियं पच्चप्पिणह। [40] इसके पश्चात् बल राजा ने कौटुम्विक पुरुषों को बुलाया और उन्हें इस प्रकार कहा'देवानुप्रियो ! हस्तिनापुर नगर में शीघ्र ही चारक-शोधन अर्थात्-बन्दियों का विमोचन करो, और मान (नाप) तथा उन्मान (तौल) में वृद्धि करो। फिर हस्तिनापुर नगर के बाहर और भीतर छिड़काव करो, सफाई करो और लोप-पोत कर शुद्धि (यावत्) करो-करायो / तत्पश्चात् यूप (जूवा) सहस्र और चक्रसहस्र की पूजा, महामहिमा और सत्कारपूर्वक उत्सव करो। मेरे इस आदेशानुसार कार्य करके मुझे पुनः निवेदन करो।' 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 2, पृ. 545 2. (क) भगवती. विवेचन (पं. घेवरचन्दजी), भा. 4, पृ. 1943 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 543 3. वहीं, अ. वति, पत्र 543 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org