________________ प्रथम शतक : उद्देशक-९] [143 विवेचन-जीवों का गुरुत्व-लघुत्व प्रस्तुत त्रिसूत्री में जीवों के गुरुत्व-लचुत्व के कारण अष्टादशपापसेवन तथा अष्टादशपाप-विरमण को बताकर साथ ही लघुत्व आदि चार की प्रशस्तता एवं गुरुत्व आदि चार की अप्रशस्तता भी प्रतिपादित की गई है। चार प्रशस्त और चार अप्रशस्त क्यों ?--इन आठों में से लघुत्व, परीतत्व हस्वत्व और व्यतिब्रजन, ये चार दण्डक प्रशस्त हैं; क्योंकि ये मोक्षांग हैं; तथा गुरुत्व, अाकुलत्व, दीर्घत्व और अनुपरिवर्तन, ये चार दण्डक अप्रशस्त हैं, क्योंकि ये अमोक्षांग (संसारांग) हैं।' पदार्थों के गुरुत्व-लघुत्व आदि की प्ररूपणा--- 4. सत्तमे णं भंते ! प्रोवासंतरे किं गरुए, लहुए, गरुयलहुए, अगस्यलहुए ? गोयमा ! नो गरुए, नो लहए, नो गरुघलहुए, अगरुयलहुए। [4 प्र] भगवन् ! क्या सातवाँ अवकाशान्तर गुरु है, अथवा वह लघु है, या गुरुलधु है, अथवा अर [4 उ.] गौतम ! वह गुरु नहीं है, लघु नहीं है, गुरु-लघु नहीं है, किन्तु अगुरुलघु है / 5. [1] सत्तमे गं भंते ! तणवाते कि गरुए, लहुए, गरुपलहुए, अगरुयलहुए ? गोयमा ! नो गरुए, नो लहुए, गरुयलहुए, नो अगस्यलहुए। [5-1 प्र.] भगवन् ! सप्तम तनुवात क्या गुरु है, लघु है या गुरुलघु हे अथवा अगुरुलधु है ? [5-1 उ.] गौतम ! वह गुरु नहीं है, लधु नहीं है, किन्तु गुरु-लघु हैं; अगुरुलघु नहीं है। [2] एवं सत्तमे घणवाए, सत्तमे घणोदही, सत्तमा पुढवी। [5-2] इस प्रकार सप्तम धनवात, सप्तम घनोदधि और सप्तम पृथ्वी के विषय में भी जानना चाहिए। [3] मोवासंतराइं सवाई जहा सत्तमे अोवासंतरे (सु. 4) / [5-3] जैसा सातवें अवकाशान्तर के विषय में कहा है, वैसा ही सभी अवकाशान्तरों के विषय में समझना चाहिए / [4] [सेसा] जहा तणुवाए / एवं-पोवास वाय घणउहि पुढवी दोवा य सागरा वासा। [5-4] तनुवात के विषय में जैसा कहा है, वैसा ही सभी धनवात, घनोदधि, पृथ्वी, द्वीप, समुद्र और क्षेत्रों के विषय में भी जानना चाहिए। 6. [1] नेरइया गं भंते ! कि गरुया जाव अगस्यलया ? गोयमा ! नो गल्या, नो लहुया, गरुयलया वि, अगरुयलहुया वि / [6-1 प्र.] भगवन् ! नारक जीव गुरु हैं, लघु हैं, गुरु-लघु हैं या अगुरुल धु हैं ? ---- . .. - 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति. पत्रांक 96 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org