________________ 120] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [27-3 प्र.] भगवन् ! क्या वह सूक्ष्म स्नेहकाय स्थूल अकाय की भाँति परस्पर समायुक्त होकर बहुत दीर्घकाल तक रहता है ? [27-3 उ.] हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है; क्योंकि वह (सुक्ष्म स्नेहकाय) शीघ्र ही विध्वस्त हो जाता है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह उसी प्रकार है, यों कहकर गौतमस्वामी तपसंयम द्वारा आत्मा को भावित करते हुए विचरण करते हैं। विवेचन-सूक्ष्मस्नेहकायपात के सम्बन्ध में प्ररूपणा प्रस्तुत सूत्र (27-1/2/3) में सूक्ष्मस्नेह (अप) काय के गिरने के सम्बन्ध में तीन प्रश्नोत्तर अंकित हैं। 'सया समियं' का दूसरा अर्थ-इन पदों का एक अर्थ तो ऊपर दिया गया है। दूसरा अर्थ वृत्तिकार ने इस प्रकार किया है-सदा अर्थात्-सभी ऋतुओं में, समित--अर्थात्-रात्रि तथा दिन के प्रथम और अन्तिम प्रहर में। काल की विशेषता से वह स्नेहकाय कभी थोड़ा और कभी अपेक्षाकृत अधिक होता है।' / / प्रथम शतक : छठा उद्देशक समाप्त / / 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 83 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org