________________ प्रथम शतक : उद्देशक-६] [ 116 बाली) और सौ बड़े छिद्र हों; डाल दे तो हे गौतम ! वह नौका, उन-उन छिद्रों द्वारा पानी से भरती हुई, अत्यन्त भरती हुई, जल से परिपूर्ण, पानी से लबालब भरी हुई, पानी से छलकती हुई, बढ़ती हुई क्या भरे हुए घड़े के समान हो जाएगी ? (गौतम-) हाँ, भगवन् ! हो जाएगी। (भगवन्—) इसलिए हे गौतम ! मैं कहता हूँ यावत् जीव और पुद्गल परस्पर घट्टित हो कर रहे हुए हैं। विवेचन-जीव और पुद्गलों का सम्बन्ध-प्रस्तुत सूत्र में जीव और पुद्गलों के परस्पर गाढ सम्बन्ध को दृष्टान्त द्वारा समझाया गया है। जीव और पुद्गलों का सम्बन्ध तालाब और नौका के समान जैसे कोई व्यक्ति जल से परिपूर्ण तालाब में छिद्रों वाली नौका डाले तो उन छिद्रों से पानी भरते-भरते नौका जल में डूब जाती है और तालाब के तलभाग में जा कर बैठ जाती है। फिर जिस तरह नौका और तालाब का पानी एकमेक हो कर रहते हैं, वैसे ही जोव और (कर्म) पुद्गल परस्पर सम्बद्ध एवं एकमेक होकर रहते हैं।' इसी प्रकार संसार रूपी तालाब के पुद्गल रूपी जल में जीव रूपी सछिद्र नौका डूब जाने पर पुद्गल और जीव एकमेक हो जाते हैं / सूक्ष्मस्नेहकायपात सम्बन्धी प्ररूपणा-- 27. [1] अस्थि णं भंते ! सदा समितं सुहुमे सिणेहकाये पवडति ? हंता, अस्थि / [27-1 प्र.] भगवन् ! क्या सूक्ष्म स्नेहकाय (एक प्रकार का सूक्ष्म जल), सदा परिमित (सपरिमाण) पड़ता है ? [27-1 उ.] हां, गौतम ! पड़ता है। [2] से भंते ! कि उड्डे पवडति, अहे पवडति तिरिए पवडति ? गोतमा ! उड्डे वि पवडति, अहे वि पवडति, तिरिए दि पवडति / [27-2 प्र.] भगवन् ! वह सूक्ष्म स्नेहकाय ऊपर पड़ता है, नीचे पड़ता है या तिरछा पड़ता है ? [27-2 उ.] गौतम ! वह उपर (ऊर्ध्वलोक में वर्तुल वैताढ्यादि में) भी पड़ता है, नीचे (अधोलोकग्रामों में) भी पड़ती है और तिरछा (तिर्यग्लोक में) भी पड़ता है / [3] जहा से बादरे प्राउकाए अन्नमन्त्रसमाउत्ते चिरं पि दोहकालं चिट्ठति तहा णं से वि ? नो इण? सम8, से गं खिप्पामेव विद्धंसमागच्छति / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति!०। ॥छट्ठो उद्दे सो समतो // 1. भगवतीसूत्र अ. वत्ति, पत्रांक 82 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org