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________________ बीसवां शतक : उद्देशक 9) पराक्रम करने से उत्तरगुणलब्धि, अर्थात्-तपोलब्धि प्राप्त हो गई हो / यही विद्याचारणलब्धि है, जिसके प्रभाव से वह मुनि आकाश में शीघ्रगति से गमन कर सकता है।' खममाणस्स-सहने वाले-तपश्चर्या करने वाले को / विद्याचारण को शीघ्र, तिर्यक एवं ऊर्ध्वगति-सामर्थ्य तथा विषय 3. विज्जाचारणस्स णं भंते ! कहं सोहा गती ? कहं सोहे गतिविसए पन्नत्ते ? गोयमा ! अयं णं जंबुद्दोवे दीवे सव्वदीव० जाव किनिविसेसाहिए परिक्खयेणं, देवे णं महिड्डीए जाव महेसक्खे जाव 'इणामेव इणामेव' त्ति कटु केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं तिहि अच्छरानिवाएहि तिक्खुत्तो अणुपरियट्टित्ताणं हबमागच्छेज्जा, विज्जाचारणस्स णं गोयमा! तहा सोहा गती, तहा सोहे गतिविसए पन्नते। |3. प्र. भगवन् ! विद्याचारण की शीघ्र गति कैसी होती है ? और उसका गति-विषय कितना शीघ्र होता है ? [3 उ.] गौतम ! यह जम्बूद्वीप नामक द्वीप, जो सर्वद्वीपों में (आभ्यन्तर है,) यावत् जिसकी परिधि (तीन लाख सोलह हजार दो सो सत्ताईस योजन से) कुछ विशेषाधिक है, उस सम्पूर्ण जम्बूद्वीप के चारों ओर कोई महद्धिक यावत् महासौख्य-सम्पन्न देव यावत्--- 'यह चक्कर लगा कर आता हूँ' यों कहकर तीन चुटकी बजाए उतने समय में, तीन वार चक्कर लगा कर पा जाए, ऐसी शीघ्र गति विद्याचारण की है। उसका इस प्रकार का शीघ्रगति का विषय कहा है। 4. विज्जाचारणस्स णं भंते ! तिरियं केवतिए गतिविसए पन्नत्ते ? गोयमा ! से णं इप्रो एगेणं उप्पाएणं माणुसुत्तरे पव्वए समोसरणं करेति, माणु० क०२ तहि चेतियाइं वंदति, तहिं० 0 2 बितिएणं उप्याएणं नंदिस्सरवरे दोबे समोसरणं करेति, नंदि० क० 2 तहिं चेतियाइं वंदति, तहि. वं० 2 तो पडिनियत्तति, त० प० 2 इहमागच्छति, इहमा०२ इहं चेतियाई वंदइ / विज्जाचारणस्स णं गोयमा! तिरियं एवतिए गतिविसए पन्नत्ते। [4 प्र.] भगवन् ! विद्याचारण की तिरछी (तिर्यग्) गति का विषय कितना कहा है ? [4 उ.] गौतम ! वह (विद्याचारण मुनि) यहाँ से एक उत्पात (उड़ान) से मानुषोत्तरपर्वत पर समवसरण करता है (अर्थात् वहाँ जा कर ठहरता है)। फिर वहाँ चैत्यों (ज्ञानियों) की स्तुति करता है। तत्पश्चात् वहाँ से दूसरे उत्पात में नन्दीश्वरद्वीप में समवसरण (स्थिति) करता है, फिर वहाँ चैत्यों की वन्दना (स्तुति) करता है, तत्पश्चात् वहाँ से (एक ही उत्पात में) वापस लौटता है और यहाँ पा जाता है। यहाँ आकर चैत्यवन्दन करता है। गौतम विद्याचरण ! मुनि की 'तिरछी गति का विषय ऐसा कहा गया है / 1. (क) भगवती, अ. वृत्ति, पत्र 795 (ख) भगवती. उपक्रम, पृ. 463 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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