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________________ 324] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र श्रमणोपासक धर्मरत अभीचि को वैरविषयक आलोचन-प्रतिक्रमण न करने से असुरकुमारत्व प्राप्ति 33. तए णं से अभीयो कुमारे समणोवासए यावि होत्था, अभिगय जाब विहरति / उदायणम्मि रायरिसिम्मि समणुबद्धवेरे यावि होत्था। [33] उस समय (चम्पा नगरी में रहते-रहते कालान्तर में) अभीचि कुमार श्रमणोपासक बना / वह जीब-अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता यावत् (बन्ध-मोक्षकुशल हो कर) जीवनयापन करता था। (श्रमणोपासक होने पर भी अभीचि कुमार) उदायन राजर्षि के प्रति वैर के अनुबन्ध से युक्त था / 34. तेणं कालेणं तेणं सभएणं इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए निरयपरिसामंतेसु चोटुि असुरकुमारावाससयसहस्सा पन्नत्ता। [34] उस काल, उस समय में (भगवान् महावीर ने) इस रत्नप्रभापृथ्वी के नरकावासों के परिपार्श्व में असुरकुमारों के चौसठ लाख असुर कुमारावास कहे हैं। 35. तए णं से अभीयो कुमारे बहूई वासाई समणोवासगपरियागं पाउणति, पाउणित्ता अद्धमासियाए सलेहणाए तोसं भत्ताई अणसगाए छेदेइ, छे० 2 तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कते कालमासे कालं किच्चा इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए निरयपरिसामंतेसु चोयडीए आतावा जाव सहस्सेसु अण्णतरंसि आतावाअसुरकुमारावासंसि भातावाअसुरकुमारदेवत्ताए उववन्ने / [35] उस अभीचि कुमार ने बहुत वर्षों तक श्रमणोपासक-पर्याय का पालन किया और उस (अन्तिम) समय में अर्द्ध मालिक संल्लेखना से तीस भक्त अनशन का छेदन किया / उस समय (उदायन राजर्षि के प्रति पूर्वोक्त वैरानुबन्ध रूप पाप-) स्थान की आलोचना एवं प्रतिक्रमण किये बिना मरण के समय कालधर्म को प्राप्त करके (अभीचि कुमार) इस रत्नप्रभापृथ्वी के नरकावासों के निकटवर्ती चौसठ लाख आताप नामक असुरकुमारावासों में से किसी प्राताप नामक असुरकुमारावास में आतापरूप असुरकुमार देव के रूप में उत्पन्न हुआ। 36. तत्थ णं अत्थेगइयाणं आतावगाणं असुरकुमाराणं देवाणं एगं पलिओवमं ठिती पन्नत्ता। तत्थ णं प्रभोयिस्स वि देवस्स एग पलिओवमं ठिती पन्नत्ता। [36] वहाँ कई आताप-असुरकुमार देवों की स्थिति एक पल्योपम की कही गई है। वहाँ अभीचि देव की स्थिति भी एक पल्योपम की है। विवेचन—प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 33 से 36 तक) में अभीचि कुमार के श्रमणोपासक होने पर उदायन राजर्षि के वैरानुबद्ध होने तथा उस पापस्थान की अन्तिम समय में अालोचना-प्रतिक्रमण किये बिना ही अर्द्ध मासिक अनशनपूर्वक काल करने से प्राताप-असुरकुमारों में एक पल्योपम की स्थिति वाले देव बनने का वर्णन किया है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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