________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 6] [323 राज्य-अप्राप्तिनिमित्त से वैराणुबद्ध प्रभीचिकुमार का वीतिभय नगर छोड़कर चम्पा नगरी में निवास 32. तए णं तस्स अभौयिस्स कुमारस्स अन्नदा कदायि पुन्चरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुब. जागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था-'एवं खलु अहं उदायणस्स पुत्ते पमावतीए देवीए अत्तए, तए णं से उदायणे राया ममं अवहाय नियगं भागिणेज्ज केसिकुमारं रज्जे ठावेत्ता समणस्स भगवओ जाव पवइए' / इमेणं एतारूवेणं महता अप्पत्तिएणं मणोमाणसिएणं दुक्खेणं अभिभूए समाणे अंतेपुरपरियालसंपरिवडे सभंडमत्तोगरणमायाए बीतीभयाओ नगराओ निग्गच्छति, नि० 2 पुव्वाणुपुदि चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे जेणेव चंपा नगरी जेणेव कूणिए राया तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवा० 2 कुणियं रायं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ / इत्थ वि णं से विउलभोगसमितिसमन्नागए यावि होत्था। [32] तत्पश्चात् (उदायन राजा के प्रवज्या-ग्रहण करने के बाद) किसी दिन रात्रि के पिछले पहर में कुटुम्ब-जागरण करते हुए (उदायनपुत्र) अभीचिकुमार के मन में इस प्रकार का विचार यावत् उत्पन्न हुआ—'मैं उदायन राजा का (ौरस) पुत्र और प्रभावती देवी का आत्मज हूँ। फिर भी (मेरे पिता) उदायन राजा ने मुझे छोड़ कर अपने भानजे केशीकुमार को राजसिंहासन पर स्थापित करके श्रमण भगवान महावीर के पास यावत् प्रव्रज्या ग्रहण की है।' इस प्रकार के इस महान् अप्रतीति-(अप्रीति)-रूप मनो-मानसिक (प्रान्तरिक) दुःख से अभिभूत (पीडित) बना हुआ अभीचिकुमार अपने अन्तःपुर-परिवार-सहित अपने भाण्डमात्रोपकरण (समस्त भाजन, शय्यादि सामग्री) को लेकर वीतिभय नगर से निकल गया और अनुक्रम से गमन करता और प्रामानुग्राम चलता हुप्रा (एक दिन) चम्पा नगरी में कूणिक राजा के पास पहुँचा। कूणिक राजा से मिल कर उसका आश्रय ग्रहण करके (वहाँ) रहने लगा। यहाँ भी वह विपुल भोग-सामग्री से सम्पन्न हो गया। विवेचन-उदायन के प्रति वैरानुबन्ध-उदायन राजा द्वारा अपने पुत्र को छोड़ कर भानजे को राज्याभिषिक्त करके प्रवजित होने के कारण अभीचिकुमार उदायन राजा के अपने प्रति कल्याणकारी शुभभावों को न समझ कर गलतफहमी से उनके प्रति रोषवश अपने अन्तःपुर एवं समस्त साधन-सामग्री को लेकर वहाँ से कूच करके चम्पापुरी में कूणिक राजा के पास पहुँचा और उसके प्राश्रित रहने लगा। इस प्रकार अभीचिकुमार की वैरानुबन्धिनी मनोवृत्ति का प्रस्तुत सूत्र में निरूपण किया गया है। कठिनशब्दार्थ-अवहाय- छोड़ कर / अप्पत्तिएणं अप्रतीतिकर या अप्रीतिजन्य / मणोमाणसिएणं दुक्खेणं-मन के आन्तरिक दुःख से / अंतेपुर-परियालसंपरिवुडे-अन्तःपुर-परिवार से परिवृत (युक्त) हो कर / सभंड-मत्तोवगरणमायाए-भाण्ड मात्र (बर्तन) सहित उपकरण (समस्त साधन-सामग्री) लेकर / उवसंपज्जिताणं-अधीनता (पाश्रय) स्वीकार कर। विउल-भोग समितिसमन्नागए–प्रचुर भोग-सामग्री से सम्पन्न / ' 1. (क) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2244 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 621 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org