________________ नवम शतक : उद्देशक-३१] [451 उवएसं पुण करेजन-किसी दीक्षार्थी के उपस्थित होने पर 'अमुक के पास दीक्षा लो' केवल इतना सा उपदेश करते हैं।' सद्दावह इत्यादि पदों का आशय-शब्दापाती. विकटापाती गन्धापाली और माल्यबन्त, ये स्थान जम्बुद्वीपप्रजप्ति के अनुसार क्षेत्रसमास के अभिप्राय से क्रमश: हैमवत. ऐरण्यवत, हरिवर्ष और रम्यकवर्ष क्षेत्र में हैं। सोमणसवणे पंडगवणे---मेरुपर्वत पर सौमनसवन तीसरा और पाण्डुकवन चौथा वन है / ' सोच्चा से सम्बन्धित प्रश्नोत्तर--- 32. सोच्चा णं भंते ! केवलिस्स वा जाव तपक्खियउवासियाए वा केवलियष्णत्तं धम्म लभेज्जा सवणयाए ? गोयमा ! सोच्चा णं केलिस्स वा जाव अत्थेगतिए केवलिपण्णत्तं धम्म० / एवं जा चेव असोच्चाए वत्तव्यया सा चेव सोच्चाए वि भाणियन्वा, नवरं अभिलावो सोच्चेति / सेसं तं देव निरवसेसं जाव 'जस्स गं मणपज्जवनाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ, जस्स ण केवलनाणावरणिज्जाणं कम्माणं खए कडे भवइ से ग सोच्चा केवलिस्स वा जाव उवासियाए वा केवलिपण्णत धम्म लभिज्ज सवणयाए, केवलं बोहि बुझज्जा जाय केवलनाणं उप्पाउन्जा (सु. 13 [2]) / |32 प्र. | भगवन् ! केवली यावत् केवली-पाक्षिक की उपासिका से (धर्मप्रतिपादक वचन) श्रवण कर क्या कोई जीव केवलिप्ररूपित धर्म-बोध (श्रवण) प्राप्त करता है ? [32 उ.] गौतम ! केवली यावत् केबलि-पाक्षिक की उपासिका से धर्म-वचन सुनकर कोई जीव केलिप्ररूपित धर्म का बोध प्राप्त करता है और कोई जीव प्राप्त नहीं करता। इस विषय में जिस प्रकार असोच्चा की वक्तव्यता कही, उसी प्रकार 'सोच्चा' की वक्तव्यता कहनी चाहिए / विशेष यह है कि यहाँ सर्वत्र सोच्चा' ऐसा पाठ कहना चाहिए / शेष सभी पूर्वोक्त वक्तव्यता कहनी चाहिए यावत् जिसने मन:पर्यवज्ञानावरणीय कर्मों का क्षयोपशम किया है तथा जिसने केवलज्ञानावरणीय कर्मों का क्षय किया है, वह केवली यावत् केबलि-पाक्षिक की उपासिका से धर्मवचन सुनकर केवलिप्ररूपित धर्म-बोध (श्रवण) प्राप्त करता है. शुद्ध बोधि (सम्यग्दर्शन) का अनुभव करता है, यावत् केवलज्ञान प्राप्त करता है। विवेचन ----'असोच्चा' का अतिदेश—जैसे केवली आदि के वचन बिना सुने ही जिन्हें सम्यगबोध से लेकर पावत् केवलज्ञान तक प्राप्त होता है, यह कहा गया है, उसी प्रकार केवली आदि से 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 436 आघवेज्ज ति या ग्राहयेच्छिापान, अर्धापयेद् वा-प्रतिपादनत: पूजां प्रापयेत् / पनवेज्जत्ति-प्रज्ञापयत----भेदभणनतो बोध येद वा / परवेज्ज त्ति---उपपत्तिकधनतः / 2. भगवती. अ. बत्ति, पत्र 436 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org