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________________ 452] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र धर्मश्रवण करने वाले जीव को भी सम्यग्बोध से लेकर यावत् केवलज्ञान (तक) उत्पन्न होता है / 'असोच्चा' को लेकर जो पाठ था उसी पाठ का ‘सोच्चा' के सभी प्रकरण में अतिदेश किया गया है।' केवली आदि से सुन कर अवधिज्ञान की उपलब्धि-. 33. तस्स णं अट्टमंअट्टमेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणस्स पगइभद्दयाए तहेव जाव गवेसणं करेमाणस्स ओहिणाणे समुप्पज्जइ। से णं तेणं ओहिनाणेणं समुप्पन्नेणं जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणं असंखेज्जाइं अलोए लोयप्पमाणमेत्ताई खंडाइं जाणइ पासइ। |33] (केवली आदि से धर्म-वचन सुन कर मम्यग्दर्शनादि प्राप्त जीव को) निरन्तर तेले-तेले (अट्ठम-अट्टम) तपःकर्म से अपनी प्रात्मा को भावित करते हुए प्रकृतिभद्रता आदि (पूर्वोक्त) गुणों से यावत् ईहा, अपोह, मागण एवं गवेषण करते हुए अवधिज्ञान समुत्पन्न होता है। वह उस उत्पत्र अवधिज्ञान के प्रभाव से जघन्य अंगुल के असंख्यातव भाग और उत्कृष्ट अलोक में भी लोकप्रमाण असंख्य खण्डों को जानता और देखता है। विवेचन केवली आदि से सुनकर सम्यग्दर्शनादिप्राप्त जीव को अवधिज्ञान-प्राप्ति की प्रक्रियाबिना सूने अवधिज्ञान प्राप्त करने वाले जीव को पहले विभंगज्ञान प्राप्त होता है, फिर सम्यक्त्वादि प्राप्त होने पर वही विभगज्ञान अवधिज्ञान में परिणत हो जाता है, जब कि सुन कर अवधिज्ञान प्राप्त करने वाला जीव बेले के बदले निरन्तर तेले की तपस्या करता है / प्रकृतिभद्रता आदि गुण तथा उसमे ईहादि के कारण अवधिज्ञान प्राप्त हो जाता है / जिसके प्रभाव से उत्कृष्टतः अलोक में भी लोकप्रमाण असंख्य खण्डों को जानता-देखता है / 2 फिर वह सम्यक्त्व, चारित्र, साधुवेष आदि से केवलज्ञान भी प्राप्त कर लेता है / तथारूप अवधिज्ञानी में लेश्या, योग, देह आदि 34. से णं भंते कतिसु लेस्सासु होज्जा? गोयमा ! छसु लेस्सासु होज्जा, तं जहा—कण्हलेसाए जाव सुक्कलेसाए / [34 प्र. भगवन् ! वह (तथारूप अवधिज्ञानी जीव), कितनी लेश्याओं में होता है ? {34 उ.] गौतम ! वह छहो लेश्याओं में होता है। यथा----कृष्णलेश्या यावत् शुक्लले श्या / 35. से णं भंते ! कतिसु गाणेसु होज्जा ? गोयमा ! तिसु वा चउसु वा होज्जा / तिसु होज्जमाणे आभिणिबोहियनाण-सुयनाण-ओहिनाणेसु होज्जा, च उसु होज्जमाणे आभिणिबोहिय नाण-सुयनाण-ओहिनाण-मणपज्जवनाणेसु होज्जा। [35 प्र] भंते ! वह (तथारूप अवधिज्ञानी जीव) कितने ज्ञानों में होता है ? / 35 उ.] गौतम ! वह तीन या चार ज्ञानों में होता है / यदि तीन ज्ञानों में होता है, तो 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र, '43 = 2. भगवती. अ. दृत्ति, पत्र 43 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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