________________ 450] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र {30 उ. गौतम ! वे ऊर्ध्वलोक में भी होते हैं, अधोलोक में भी होते हैं और तिर्यगलोक में भी होते हैं। यदि ऊर्ध्वलोक में होते हैं तो शब्दापाती, विकटापाती, गन्धापाती, और माल्यवन्त नामक वृत्त (वैताढ्य) पवंतों में होते है तथा सहरण की अपेक्षा सौमनसवन में अथवा पाण्डुकवन में होते हैं। यदि अधोलोक में होते हैं तो गर्ता (अधोलोक ग्रामादि) में अथवा गुफा में होते हैं * तथा संहरण की अपेक्षा पातालकलशो में अथवा भवनवासी देवों के भवनों में होते हैं। यदि तिर्यग्लोक में होते हैं तो पन्द्रह कर्मभूमि में होते हैं तथा संहरण की अपेक्षा अढाई द्वीप और समुद्रों के एक भाग में होते हैं। 31, ते णं भंते ! एगसमएणं केवतिया होज्जा? गोयमा ! जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं दस / से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वच्चइ 'असोच्चा णं केवलिस्स वा जाव अत्थेगतिए केबलिपगणतं धम्मं लभेज्जा सवणयाए, अत्थेगतिए असोच्चा णं केवलि जाव नो लभेज्जा सवणयाए जाव अत्थेगतिए केवलनाणं उप्पाडेज्जा, अत्थेगतिए केवलनाणं नो उप्पाडेजा। [31 प्र.] भगवन् ! वे असोच्चा केवली एक समय में कितने होते हैं ? 31 उ.] गौतम ! वे जघन्य एक, दो अथवा तीन और उत्कृष्ट दस होते हैं / | उपसंहार—| इसलिए हे गौतम ! मैं ऐसा कहता हूँ कि केवली यावत् केलि-पाक्षिक की उपासिका से धर्मश्रवण किये बिना ही किसी जीव को केवलिप्ररूपित धर्म-श्रवण प्राप्त होता है और किसी को नहीं होता; यावत् कोई जीव केवलज्ञान उत्पन्न कर लेता है और कोई जोव केवलज्ञान उत्पन्न नहीं कर पाता / विवेचन---असोच्चा केवली का आचार-विचार, उपलब्धि एवं स्थान-२७ से 31 सूत्र तक प्रस्तुत पाँच सूत्रों में असोच्चा केवली से सम्बन्धित निम्नोक्त प्रश्नों के उत्तर हैं-(१) वे केवलिप्ररूपित धर्म कहते, बतलाते या प्रेरणा करते हैं ?, (2) वे किसी को प्रवजित या मुण्डित करते हैं ?, (3) वे सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होते हैं. यावत् सर्व दुःखों का अन्त करते हैं ?, (4) वे ऊर्ध्व, अधो या तिर्यग्लोक में कहाँ-कहाँ होते हैं ?, (5) वे एक समय में कितने होते हैं ? ' आघवेज्ज-शिष्यों को शास्त्र का अर्थ ग्रहण कराते हैं, अथवा अर्थ-प्रतिपादन करके सत्कार प्राप्त कराते हैं। पनवेज्ज---भेद बताकर या भिन्न-भिन्न करके समझाते हैं। परूवेज्ज -उपपत्तिकथनपूर्वक प्ररूपण करते हैं। पवावेज्ज मुडावेज्ज-रजोहरण आदि द्रव्योष देकर प्रजित (दीक्षित) करते हैं, मस्तक का ___ लोच करके मुण्डित करते हैं। -------- 1. वियाहपण्णत्तिसुत्त (मुलपाठ-टिप्पण) भा. 1, पृ. 416-417 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org