________________ नवम शतक : उद्देशक-३१] [449 होने से वह 'निरावरण' है / सकल पदार्थों का ग्राहक होने से वह 'कृत्स्न' होता है / अपने सम्पूर्ण अंशों से युक्त उत्पन्न होने से वह 'प्रतिपूर्ण' होता है / केवलदर्शन के लिए भी यही विशेषण समझ लेने चाहिए।' असोच्चा केवली द्वारा उपदेश-प्रवज्या सिद्धि प्रादि के सम्बन्ध में-- 27. से णं भंते ! केवलिपण्णत्तं धम्म आघवेज्जा वा पण्णवेज्जा वा परवेज्जा वा? नो इणठे समठे, गन्नत्थ एगणाएग वा एगवागरणेण वा / 27 प्र. | भगवन् ! वे असोच्चा केवलो, केबलिप्ररूपित धर्म कहते हैं, बतलाते हैं अथवा प्ररूपणा करते हैं ? [27 उ. | गौतम ! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है / वे (केवल) एक ज्ञात (उदाहरण) के अथवा एक (व्याकरण) प्रश्न के उत्तर के सिवाय अन्य (धर्म का) उपदेश नहीं करते। 28. से पं भंते ! पवावेज्ज वा मुडावेज्ज वा ? गो इणठे समझें, उवदेसं पुण करेज्जा / (28 प्र. भगवन् ! वे असोच्चा केवली (किसी को) प्रजित करते हैं या मुण्डित करते हैं ? (28 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं। किन्तु उपदेश करते (कहते ) है (कि तुम अमुक के पास प्रव्रज्या ग्रहण करो।)। 29. से णं भंते ! सिज्झति जाव अंतं करेति ? हंता, सिज्झति जाव अंतं करेति / 26 प्र. भगवन् ! (क्या असोच्चा केवली) सिद्ध होते हैं यावत् समस्त दुःखों का अन्त करते हैं ? [26 उ.] हाँ गौतम ! वे सिद्ध होते हैं, यावत् सर्व दुःखों का अन्त करते हैं / 30, से णं भंते ! कि उड्ढ होज्जा, अहो होज्जा, तिरिय होज्जा ? गोयमा! उड्ढं वा होज्जा, अहो वा होज्जा, तिरियं वा होज्जा / उड्ढं होज्जमाणे सद्दावइवियडावइ-गधावइ-मालवंतपरियाएसु बट्टवेयपव्वएसु होज्जा, साहरणं पडुच्च सोमणसवणे बा पंडगवणे वा होज्जा / अहो होज्जमाणे गड्डाए वा दरीए वा होज्जा, साहरणं पडुच्च पायाले वा भवणे वा होज्जा / तिरिय होज्जमाणे पण्णरससु कम्मभूमोसु होज्जा, साहरणं पडुच्च अढाइज्जदीव-समुद्दत. देषकदेसभाए होज्जा। (30 प्र. भगवन् ! वे असोच्चा केवली ऊर्ध्व लोक में होते हैं , अधोलोक में होते हैं या तिर्यक्लोक में होते हैं ? 1. भगवती स्त्र भा.४ (पं. घेवरचन्द जी), पृ. 1604 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org