SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 2507
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 3] विवेचन-परिमण्डलादि संस्थान का द्रव्यरूप से विचार–परिमण्डल-संस्थान द्रव्यरूप से एक है और एक वस्तु का चार-चार से अपहार (भाग) नहीं होता / इस कारण एकत्व के विचार करने में कृतयुग्मादि का व्यपदेश नहीं होता, क्योंकि एक ही शेष रहता है, अतः वह कल्योजरूप है। इसी प्रकार वृत्तादि संस्थान के विषय में भी समझना चाहिए / सामान्य रूप से परिमण्डलादि संस्थान का विचार सामान्य रूप से यदि सभी परिमण्डल आदि संस्थानों का विचार करते हैं तब उनका चार-चार से अपहार करते हुए किसी समय कुछ भी बाकी नहीं रहता, कदाचित् तीन, कदाचित् दो और कदाचित् एक शेष रहता है / इसलिए कदाचित् कृतयुग्म होते हैं, यावत् कदाचित् कल्योज भी होते हैं / जब विधानादेश से-अर्थात्विशेष दृष्टि से समुदित संस्थानों में से एक-एक संस्थान का विचार किया जाता है, तब चार से अपहार न होने के कारण एक ही शेष रहता है / अतः वह कल्योज रूप होता है।' प्रदेशार्थरूप से परिमण्डलादि संस्थान का विचार-जब परिमण्डलादि संस्थान का प्रदेशार्थ रूप से विचार किया जाता है, तब बीस आदि क्षेत्रप्रदेशों में जो प्रदेश परिमण्डलादि संस्थानरूप से व्यवस्थित होते हैं, उनकी अपेक्षा से बीस आदि प्रदेशों का कथन किया जाता है। उन प्रदेशों में चारचार का अपहार करते हुए जब चार शेष रहते हैं, तब कृतयुग्म होते हैं। जब तीन शेष रहते हैं, तब योज होते हैं, दो शेष रहने पर द्वापरयुग्म और एक शेष रहने पर कल्योज होता है, क्योंकि एक प्रदेश पर भी बहुत से अणु अवगाढ होते हैं / कठिन शब्दार्थ--प्रोपावेसेणं-ओघादेश से सामान्यतया सर्वसमुदित रूप से / विहाणादेसेणंविधानादेश से-एक-एक की अपेक्षा से / पांच संस्थानों में यथायोग्य कृतयुग्मादि प्रदेशावगाह-प्ररूपणा 51. परिमंडले णं भंते ! संठाणे कि कडजुम्मपएसोगाढे जाव कलियोगपएसोगाढे ? गोयमा ! कडजुम्मपएसोगाढे, नो तेयोगपदेसोगाढे, नो दावरजुम्मपएसोगाढे, नो कलियोगपएसोगाढे। [51 प्र.] भगवन् ! परिमण्डल-संस्थान कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ है, त्र्योज-प्रदेशावगाढ है, द्वापरयुग्म-प्रदेशावगाढ है, अथवा कल्योज-प्रदेशावगाढ है ? [51 उ.] गौतम ! वह कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ है किन्तु न तो योज-प्रदेशावगाढ है, न ही द्वापरयुग्म-प्रदेशावगाढ है और न कल्योज-प्रदेशावगाढ है / 52. बट्टे णं भंते ! संठाणे कि कडजुम्म० पुच्छा / गोयमा ! सिय कडजुम्मपदेसोगाढे, सिय तेयोगपएसोगाढे, नो दावरजुम्मपदेसोगाढे, सिय कलियोगपएसोगाढे। 1, भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 863 2. (क) वही, पत्र 863 (ख) भगवती (हिन्दी-विवेचन) भा. 7, पृ. 3221 3. भगवती. प्र. वृत्ति, पत्र 863 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy