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________________ छुव्वीसवां शतक : उद्देशक 2j [547 [6] पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च योनिकों में भी सम्यगमिथ्यात्व, अवधिज्ञान, विभंगज्ञान, मनोयोग और वचनयोग, ये पांच पद नहीं कहने चाहिए। 7. मस्साणं अलेस्स-सम्मामिच्छत्त-मणपज्जवनाण-केवलनाण-विभंगनाण-नोसण्णोवउत्तअवेयग-अकसायि-मणजोग-वइजोग-अजोगि, एयाणि एक्कारस पयाणि ण भण्णंति / [7] मनुष्यों में अले श्यत्व, सम्यमिथ्यात्व, मनःपर्यवज्ञान, केवलज्ञान, विभंगज्ञान, नोसंज्ञोपयुक्त, अवेदक, अकषायी, मनोयोग, वचनयोग और अयोगी ये ग्यारह पद नहीं कहने चाहिए। 8. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणियाणं जहा नेरतियाणं तहेव तिणि न भण्णं ति / सम्वेसि जाणि सेसाणि ठाणाणि सव्वत्य पढम-बितिया भंगा। [8] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों के विषय में नैरयिकों को वक्तव्यता के समान पूर्वोक्त तीन पद (सम्यगमिथ्यात्व, मनोयोग और बचनयोग) नहीं कहने चाहिए। इन सबके जो शेष स्थान हैं, उनमें सर्वत्र प्रथम और द्वितीय भंग जानना चाहिए। है. एगिदियाणं सम्बत्थ पढम-बितिया भंगा। [9] एकेन्द्रिय जीवों के सभी स्थानों में प्रथम और द्वितीय भंग कहना चाहिए। विवेचन-अनन्तरोपपत्रक : स्वरूप और दण्डक—'अनन्तरोपपन्नक' उसे कहते हैं, जिसकी उत्पत्ति का प्रथम समय ही हो। इस दूसरे उद्देशक में नैरयिक आदि चौवीस ही दण्डकों में उपर्युक्त ग्यारह द्वारों में पापकर्म आदि के बन्ध की चातुभंगिक दृष्टि से प्ररूपणा की गई है। प्रथम उद्देशक में प्रोधिक जीव और नारक आदि चौवीस, इस प्रकार पच्चीस दण्डक कहे हैं, किन्तु इस द्वितीय उद्देशक में नैरयिक आदि चौवीस दण्डक ही कहने चाहिए, क्योंकि पौधिक जीव के साथ अनन्तरोपपन्नक प्रादि विशेषण नहीं लगाये जा सकते। ___ अनन्तरोपपन्नक में पच्छा के अयोग्यपद-अनन्तरोपपत्रक ने रयिक मादि में प्रथम और द्वितीय, ये दो भंग ही पाये जाते हैं, क्योंकि उसमें मोहरूप पापकर्म के प्रबन्धक का अभाव है। प्रबन्धकत्व सूक्ष्मसम्परायादि गुणस्थानों में होता है और वे गुणस्थान नैरयिक आदि के नहीं होते / लेश्यादि पद सामान्यतया नैरयिक आदि में होते हैं। जो पद यद्यपि नारकों में उक्त सम्यग्मिथ्यात्व आदि तीनों पद होते हैं, किन्तु अनन्तरोपपन्नक नै रयिक प्रादि में अपर्याप्त होने के कारण नहीं होते, अतः उनके विषय में प्रश्न नहीं करना चाहिए, यह कथन मूलपाठ में यत्र-तत्र किया गया है / वे पद ये हैं-मिश्रदष्टि, मनोयोग, वचनयोग / पंचेन्द्रियतिर्यञ्च में इन तीनों के अतिरिक्त अवधिज्ञान और विभंगज्ञान, ये दो पद भी अप्रष्टव्य हैं। मनुष्यों में अलेश्यत्व, सम्यगमिथ्यात्व, मनःपर्यवज्ञान, केवलज्ञान, विभंगज्ञान, नोसंज्ञोपयुक्त, अवेदी, अकषायी, मनोयोग, वचनयोग और अयोगित्व, इन ग्यारह पदों के विषय में नहीं कहा जाता / पर्याप्तक होने के बाद ये होते हैं / ' 1. (क) भगवतो. अ. वृत्ति, पत्र 935 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3567 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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