________________ 10) [ग्याच्याप्राप्तिसूत्र होती है। प्रवाल और पत्र को अवगाहना धनुष-पृथक्त्व की होती है / पुष्प की अवगाहना हस्तपृथक्त्व की और फल तथा बीज को उत्कृष्ट अवगाहना अंगुल-पृथक्त्व की होती है। इन सबकी जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातव भाग की होती है / शेष सब कथन शालिवर्ग के समान जानना चाहिए। इस प्रकार ये दश उद्देशक विवेचन----शालिवर्ग के अतिदेशपूर्वक दश उद्देशक--इस शतक के वर्गों और उद्देशकों का प्रतिपाद्य विषय और व्याख्या प्रायः पूर्वोक्त इक्कीसवें शतक के समान है / प्राचीन प्राचार्यों द्वारा निरूपित गाथा-देवों में से प्राकर किन-किन में उत्पत्ति होती है, किन में नहीं ? इसके लिए एक गाथा है 'पत्त-पवाले पुष्फे फले य बोए य होइ उववाओ। रुवखेसु सुरगणाणं पसत्थ-रस-वन्न-गंधेसु / ' अर्थात--इनमें से प्रशस्त रस वर्ण और गन्ध वाले पत्र, प्रवाल, पूष्प, फल और बीज में देव पाकर उत्पन्न होते हैं।' // बाईसौं शतक : प्रथम वर्ग समाप्त / .00 1. भगवती. भ. वृत्ति, पत्र 804 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org