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________________ 498] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन–अल्पबहुत्व-सम्मूच्छिम मनुष्य असंख्यात होने से गर्भज-मनुष्य-प्रवेशनक से उन (सम्मूच्छिम-मनुष्यों) के प्रवेशनक असंख्यातगुणे अधिक हैं।' देव-प्रवेशनक : प्रकार और भंग 42. देवपवेसणए णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गंगेया ! चउन्विहे पण्णत्ते, तं जहा-भवणवासिदेवपवेसणए जाव वेमाणियदेवपवेसणए / [42 प्र.] भगवन् ! देव-प्रवेशनक कितने प्रकार का कहा गया है ? [42 उ.] गांगेय ! वह चार प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार-(१) भवनवासीदेव-प्रवेशक, (2) वाणव्यन्तर-देव-प्रवेशनक, (3) ज्योतिष्क-देव-प्रवेशनक और (4) वैमानिकदेव-प्रवेशनक। 43. एगे भंते ! देवे देवपवेसणए णं पविसमाणे किं भवणवासीसु होज्जा वाणमंतर. जोइसिय-वेमाणिएसु होज्जा? गंगेया! भवणवासीसु वा होज्जा बाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिएसुवा होज्जा। [43 प्र.] भगवन् ! एक देव, देव-प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करता हुया क्या भवनवासी देवों में होता है, वाणव्यन्तर देवों में होता है, ज्योतिष्क देवों में होता है अथवा वैमानिक देवों में होता है ? [43 उ.] गांगेय ! एक देव, देव-प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करता हुया, भवनवासी देवों में होता है, अथवा वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क अथवा वैमानिक देवों में होता है / 44. दो भंते ! देवा देवपवेसणए० पुच्छा। गंगेया ! भवणवासीसु वा होज्जा, वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिएसु वा होज्जा / अह्वा एगे भवणवासीसु, एगे वाणमंतरेसु होज्जा। एवं जहा तिरिक्खजोणियपवेसणए तहा देवपवेसणए वि भाणियब्वे जाव असंखिज्ज ति। [44 प्र.] भगवन् ! दो देव, देव-प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करते हुए क्या भवनवासी देवों में, इत्यादि (पूर्ववत्) प्रश्न / [44 उ.] गांगेय ! वे भवनवासी देवों में होते हैं, अथवा वाणव्यन्तर देवों में होते हैं, या ज्योतिष्क देवों में होते हैं, अथवा वैमानिक देवों में होते हैं / अथवा एक भवनवासी देवों में होता है, और एक वाणव्यन्तर देवों में होता है / जिस प्रकार तिर्यञ्चयोंनिक-प्रवेशनक कहा, उसी प्रकार देवप्रवेशनक भी कहना चाहिए, यावत् असंख्यात-देव-प्रवेशनक तक कहना चाहिए। विवेचन-देव-प्रवेशनक-प्ररूपणा-देव-प्रवेशनक के चार प्रकार कहे गए हैं, जो पागमों में प्रसिद्ध हैं / एक देव या दो देव भवनपति देवों में, वाणव्यन्तर देवों में, ज्योतिष्क देवों में या बैमानिक देवों में से किन्हीं में उत्पन्न हो सकते हैं। द्विकसंयोगी भंगों की संख्या तिर्यञ्चयोनिक जीवों की तरह ही समझनी चाहिए / देवों की संख्या 4 ही होती है, यह विशेष है। 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 453 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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