________________ अष्टम शतक : उद्देशक-६] गोयमा! तिकिरिया वि, चउकिरिया वि। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / // अट्ठमसए : छट्ठो उद्देसनो समत्तो / [29] जिस प्रकार वैक्रियशरीर का कथन किया गया है, उसी प्रकार आहारक, तैजस और कार्मण शरीर का भी कथन करना चाहिए। इन तीनों के प्रत्येक के चार-चार दण्डक कहने चाहिए, यावत्-(प्रश्न-) 'भगवन् ! बहुत-से वैमानिक देव (परकीय) कार्मण शरीरों की अपेक्षा कितनी क्रिया वाले होते हैं ?' (उत्तर) 'गौतम ! तीन क्रिया वाले भी और चार क्रिया वाले भी होते हैं'; यहाँ तक कहना चाहिए। हे भगवन् / यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; (यों कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरण करते हैं।) ___ विवेचन—एक जीव या बहत जीवों को परकीय एक या बहुत-से शरीरों की अपेक्षा होने वाली क्रियाओं का निरूपण-प्रस्तुत 16 सूत्रों (मू. 14 से 26 तक) में औधिक एक या बहुत जीवों तथा नैरपिक से लेकर वैमानिक तक एक या बहुत जीवों को, परकीय एक या बहुत-से औदारिकादि शरीरों की अपेक्षा से होने वाली क्रियाओं का निरूपण किया गया है। अन्य जीव के प्रौदारिकादि शरीर की अपेक्षा होने वाली क्रिया का प्राशय-कायिकी आदि पांच क्रियाएँ हैं, जिनका स्वरूप पहले बताया जा चुका है / जब एक जीव, दूसरे पृथ्वी कायादि जीव के शरीर की अपेक्षा काया का व्यापार करता है, तब उसे तीन क्रियाएँ होती हैं-कायिकी, आधिकारणिकी और प्राषिकी / क्योंकि सराग जीव को कायिकक्रिया के सद्भाव में आधिकरणिकी तथा प्राषिकी क्रिया अवश्य होती है, क्योंकि सराग जीव की काया अधिकरण रूप और प्रद्वेषयुक्त होती है। प्राधिकरणिकी, प्राषिकी और कायिकी, इन तीनों क्रियाओं का अविनाभावसम्बन्ध है / जिस जीव के कायिकी क्रिया होती है, उसके प्राधिकरणिको और प्राद्वेषिकी क्रिया अवश्य होती हैं, जिस जीव के ये दो क्रियाएँ होती हैं, उसके कायिकी क्रिया भी अवश्य होती है। पारितापनिकी और प्राणातिपातिकी क्रिया में भजना (विकल्प) है; जब जीव, दूसरे जीव को परिताप पहुँचाता है अथवा दूसरे के प्राणों का घात करता है, तभी क्रमशः पारितापनिकी अथवा प्राणातिपातिकी क्रिया होती है। अत: जब जीव, दूसरे जीव को परिताप उत्पन्न करता है, तब जीव को चार क्रियाएँ होती हैं, क्योंकि पारितापनिकी क्रिया में पहले की तीन क्रियाओं का सद्भाव अवश्य रहता है / जब जीव, दूसरे जीव के प्राणों का घात करता है, तब उसे पांच क्रियाएँ होती हैं। क्योंकि प्राणातिपातिको क्रिया में पूर्व की चार क्रियाओं का सद्भाव अवश्य होता है। इसीलिए मूलपाठ में जीव को कदाचित् तीन, कदाचित् चार और कदाचित् पांच क्रिया वाला कहा गया है / जीव कदाचित् अक्रिय भी होता है, यह बात वीतराग अवस्था की अपेक्षा से कही गई है, क्योंकि उस अवस्था में पांचों में से एक भी क्रिया नहीं होती। 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 377 "जस्स णं जीवस्स काइया किरिया कज्जइ, तस्स अहिगरणिया किरिया नियमा कज्जइ, जस्स अहिंगरणिया किरिया कज्जइ, तस्स वि काइया किरिया नियमा कज्जई।" "जस्स णं जीवस्स काइया किरिया कज्जइ, तस्स पारियावणिया किरिया सिय कज्जइ, सिय नो कज्जई" इत्यादि। -प्रज्ञापनामुत्र क्रियापद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org