________________ पंचम शतक : उद्देशक-७] [491 गाथा का भावार्थ-क्षेत्रस्थानायु, अंवगाहना-स्थानायु, द्रव्यस्थानायु और भावस्थानायु; इनका अल्प-बहुत्व कहना चाहिए। इनमें क्षेत्रस्थानायु सबसे अल्प है, शेष तीन स्थानायु क्रमशः असंख्येयगुणा हैं / विवेचन-क्षेत्रादिस्थानायु का अल्पबहुत्व-प्रस्तुत सूत्र और तदनुरूप गाथा में क्षेत्र, अवगाहना, द्रव्य और भावरूप स्थानायु के अल्प-बहुत्व को प्ररूपणा की गई है। द्रव्य-स्थानाय प्रादि का स्वरूप-पुद्गल द्रव्य का स्थान--यानी परमाणु, द्विप्रदेशिकादि स्कन्ध आदि रूप में अवस्थान की आयु अर्थात् स्थिति (रहना) द्रव्यस्थानायु है। एकप्रदेशादि क्षेत्र में पुद्गलों के अवस्थान को क्षेत्रस्थानायु कहते हैं / इसी प्रकार पुद्गलों के प्राधार-स्थलरूप एक प्रकार का प्राकार अवगाहना है, इस अवगाहित किये हुए परिमित क्षेत्र में पुद्गलों का रहना अवगाहनास्थानायु कहलाता है। द्रव्य के विभिन्न रूपों में परिवर्तित होने पर भी द्रव्य के आश्रित गुणों का जो अवस्थान रहता है, उसे भावस्थानायु कहते हैं।' द्रव्यस्थानायु प्रादि के अल्प-बहुत्व का रहस्य-- द्रव्यस्थानायु आदि चारों में क्षेत्र अमूर्तिक होने से तथा उसके साथ पुद्गलों के बंध का कारण 'स्निग्धत्व' न होने से पुद्गलों का क्षेत्रावस्थानकाल (अर्थात्-क्षेत्रस्थानायु) सबसे थोड़ा बताया गया है। एक क्षेत्र में रहा हुआ पुद्गल दूसरे क्षेत्र में चला जाता है, तब भी उसकी अवमाहना वही रहती है, इसलिए क्षेत्रस्थानायु की अपेक्षा अवगाहनास्थानायु असंख्यगुणा है / संकोच-विकासरूप अवगाहना की निवृत्ति हो जाने पर भी द्रव्य दीर्घकाल तक रहता है ; इसलिए अवगाहना-स्थानायु की अपेक्षा द्रव्यस्थानायु असंख्यगुणा है / द्रव्य की निवृत्ति, या अन्यरूप में परिणति होने पर द्रव्य में बहुत से गुणों की स्थिति चिरकाल तक रहती है, सब गुणों का नाश नहीं होता; अनेक गुण अवस्थित रहते हैं, इसलिए द्रव्यस्थानायु की अपेक्षा भावस्थानायु असंख्यगुणा है / चौबीस दण्डकों के जीवों के प्रारम्भ-परिग्रहयुक्त होने की सहेतुक प्ररूपरणा-- 30. [1] नेरइया णं भंते ! किं सारंभा सपरिग्गहा ? उदाहु अणारंभा अपरिग्गहा ? गोयमा ! नेरइया सारंभा सपरिग्गहा, नो अणारंभा णो अपरिग्गहा / / [30-1 प्र] भगवन् ! क्या नैरयिक प्रारम्भ और परिग्रह से सहित होते हैं, अथवा अनारम्भी एवं अपरिग्रही होते हैं ? [30-1 उ.] गौतम ! नैरपिक सारम्भ एवं सपरिग्रह होते हैं, किन्तु अनारम्भी एवं अपरिग्रही नहीं होते। [2] से केण?णं जाव अपरिगहा ? गोयमा! नेरइया णं पुढविकायं समारंभंति जाव तसकायं समारंभंति, सरीरा परिग्गहिया भवंति, कम्मा परिग्गहिया भवंति, सचित्त-प्रचित्त-मोसयाई दवाई परिग्गहियाई भवंति; से तेण?णं तं चेव। 1. (क) भगवती अ. वृत्ति, पत्रांक 236 (ख) भगवती० हिंदी विवेचन, भा. 2, पृ. 883-884 2. (क) भगवती अ. बत्ति, पत्रांक, 236-237 (ख) भगवती० हिन्दी विवेचन, भा. 2, ए. 884 (ग) स्निग्धरूक्षत्वाद् बन्धः'-तत्त्वार्थसूत्र न. 5, सू. 32 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org