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________________ 366 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [22 प्र.] भगवन् ! पूर्वप्रयोग-प्रत्ययिक-शरीरबन्ध किसे कहते हैं ? [22 उ.] गौतम ! जहाँ-जहाँ जिन-जिन कारणों से समुद्घात करते हए नैरयिक जीवों और संसारस्थ सर्वजीवों के जीवप्रदेशों का जो बन्ध सम्पन्न होता है, वह पूर्वप्रयोगबन्ध कहलाता है / यह है पूर्वप्रयोग-प्रत्यायिकबन्ध / 23. से कि तं पडुप्पन्नप्पयोगपच्चइए ? पडप्पन्नप्पयोगपच्चइए, ज णं केवलनाणिस्स अणगारस्स केवलिसमुग्धारण समोहयस्स, ताओ समुग्घायानो पडिनियत्तमाणस्स, अंतरा मंथे वट्टमाणस्स तेया-कम्माणं बंधे समुष्पज्जइ / कि कारणं ? ताहे से पएसा एगत्तीगया भवंति ति / से तं पडुप्पन्नप्पयोगपच्चइए / से तं सरीरबंधे / [23 प्र.] भगवन् ! प्रत्युत्पन्न-प्रयोग-प्रत्ययिक किसे कहते हैं ? [23 उ.] गौतम ! केवलीसमुद्घात द्वारा समुद्घात करते हुए और उस समुद्घात से प्रतिनिवृत्त होते (वापस लौटते) हुए बीच के मार्ग (मन्थानावस्था) में रहे हुए केवलज्ञानी अनगार के तैजस और कार्मण शरीर का जो बन्ध सम्पन्न होता है, उसे प्रत्युत्पन्न-प्रयोग-प्रयायक-बन्ध कहते हैं / [प्र.] (तैजस और कार्मण शरीर के बन्ध का) क्या कारण है ? [उ.] उस समय (यात्म) प्रदेश एकत्रीकृत (संघातरूप) होते हैं, जिससे (तैजस-कार्मण-शरीर का) बन्ध होता है। यह हुआ, उस प्रत्युत्पन्नप्रयोगप्रत्ययिकबन्ध का स्वरूप / यह शरीरबन्ध का कथन हुआ। विवेचन-प्रयोगबन्ध : प्रकार और भेद-प्रभेद तथा उनका स्वरूप-प्रस्तुत 12 सूत्रों (सू. 12 से 23 तक) में प्रयोगबन्ध के तीन भंग तथा सादि-सपर्यवसित बन्ध के चार भेद एवं उनके प्रभेद और स्वरूप का वर्णन किया गया है। प्रयोगबन्ध : स्वरूप और जीवों की दृष्टि से प्रकार जीव के व्यापार से जो बन्ध होता है, वह प्रयोगबन्ध कहलाता है। प्रयोगबन्ध के तीन विकल्प हैं--(१) अनादि-अपर्यवसित-जीव के असंख्यात प्रदेशों में से मध्य के पाठ (रुचक) प्रदेशों का बन्ध अनादि-अपर्यवसित है। जब केवली समुद्घात करते हैं, तब उनके प्रदेश समग्रलोकव्यापी हो जाते हैं, उस समय भी वे आठ प्रदेश तो अपनी स्थिति में ही रहते हैं। उनमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता। उनकी स्थापना इस प्रकार है-- 1. नीचे ये चार प्रदेश हैं, और इनके ऊपर चार प्रदेश हैं / इस प्रकार स 8 प्रदेशों का बन्ध है। पूर्वोक्त 8 प्रदेशों में भी प्रत्येक प्रदेश का अपने पास रहे हए दो प्रदेशों के साथ तथा ऊपर या नीचे रहे हुए एक प्रदेश के साथ, इस प्रकार तीन-तीन प्रदेशों के साथ भी अनादिअपर्यवसित बन्ध है। शेष सभी प्रदेशों का सयोगी अवस्था तक सादि-सपर्यवसित नामक तीसरा विकल्प है, तथा सिद्ध जीवों के प्रदेशों का सादि-अपर्यवसित बन्ध है। प्रस्तुत चार भंगों (विकल्पों) में से दूसरे भंग (अनादि-सपर्यवसित) में बन्ध नहीं होता। सादि-सपर्यवसित बन्ध के चार भेद हैं--(१) पालापनबन्ध-(रस्सी आदि से घास आदि को बांधना), (2) प्रालीनबन्ध-(लाख आदि एक श्लेष्य पदार्थ का दूसरे पदार्थ के साथ बन्ध होना), (3) शरीरबन्ध - (समुद्घाल करते समय विस्तारित और संकोचित जीव-प्रदेशों के सम्बन्ध से तैजसादि शरीर-प्रदेशों का सम्बन्ध होना), और (4) शरीरप्रयोगबन्ध-(औदारिकादि शरीर की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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