________________ अष्टम शतक : उद्देशक-९] [367 प्रवृत्ति से शरीर के पुद्गलों को ग्रहण करने रूप बन्ध) : इसके पश्चात् आलीनबन्ध के श्लेषणादिबन्ध के रूप में 4 भेद तथा उनका स्वरूप मूलपाठ में बतला दिया गया है / संहननबन्ध : दो रूप-विभिन्न पदार्थों के मिलने से एक प्रकार का पदार्थ बन जाना, संहननबन्ध है / पहिया, जुना आदि विभिन्न अवयव मिलकर जैसे गाड़ी का रूप धारण कर लेते हैं, वैसे ही किसी वस्तु के एक अंश के साथ, किसी अन्य वस्तु के अंश रूप से सम्बन्ध होना-जुड़ जाना, देश-संहननबन्ध है और दूध-पानी की तरह एकमेक हो जाना, सर्व-संहननबन्ध है / / शरीरबन्ध : दो भेद-वेदना, कषाय-यादि समुद्घातरूप जीवव्यापार से होने वाला जीवप्रदेशों का बन्ध, अथवा जीवप्रदेशाश्रित तैजस-कार्मणशरीर का बन्ध पूर्वप्रयोग-प्रत्ययिक शरीरबन्ध है, तथा वर्तमानकाल में केवली समुद्धात रूप जीवव्यापार से होने वाला तैजस-कार्मणशरीर का बन्ध, प्रत्युत्पन्न-प्रयोग-प्रत्यायकबन्ध है।" शरीरप्रयोगबन्ध के प्रकार एवं प्रौदारिकशरीरप्रयोगबन्ध के सम्बन्ध में विभिन्न पहलुओं से निरूपरण 24. से कि तं सरीरप्रयोगबंधे ? सरीरप्पयोगबधे पंचविहे पन्नते, तं जहा-ओरालियसरीरप्पओगबधे वेउब्वियसरीरप्पनोगबधे प्राहारगसरीरप्पनोगबधे तेयासरीरप्पयोगबंधे कम्मासरीरप्पयोगबंधे / [24 प्र.] भगवन् ! शरीरप्रयोगबन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? [24 उ.] गौतम ! शरीरप्रयोगबन्ध पांच प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार है(१) प्रौदारिकशरीरप्रयोगबन्ध, (2) वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध, (3) आहारकशरीरप्रयोगबन्ध, (4) तैजसशरीरप्रयोगबन्ध और (5) कार्मणशरीरप्रयोगबन्ध / 25. पोरालियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा! पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा~-एगिदियोरालियसरीरप्पयोबधे बेइंदियोरालियसरीरप्पयोगबधे जाव पंचिदियनोरालियसरीरप्पयोगबंधे। [25 प्र.] भगवन् ! औदारिक शरीरप्रयोगबन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? [25 उ.] गौतम ! वह पांच प्रकार का कहा गया है। यथा-(१) एकेन्द्रिय-औदारिकशरीरप्रयोगबन्ध, (2) द्वीन्द्रिय-औदारिकशरीर-प्रयोगबन्ध, (3) श्रीन्द्रिय औदारिकशरीर-प्रयोगबन्ध, (4) चतुरिन्द्रिय-प्रौदारिकशरीर-प्रयोगबन्ध और (5) पंचेन्द्रिय-प्रौदारिकशरीर-प्रयोगबन्ध / 26. एगिदियोरालियसरीरप्पयोगबधे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-पुढविक्काइयएगिदियोरालियसरीरप्पयोगधे, एवं एएणं अभिलावेणं भेदा जहा प्रोगाहणसंठाणे पोरालियसरीरस्स तहा भाणियन्वा जाब पज्जत्तगब्भ 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 394 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org