SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 2865
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चौतीसवां शतक : उद्देशक 1] (667 [49-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि यावत् वह तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? [49-2 उ.] गौतम ! जैसे रत्नप्रभापृथ्वी में सप्तश्रेणीरूप हेतु कहा, वही हेतु यहाँ जानना चाहिए। 50. एवं पज्जत्तबादरतेउकाइयत्ताए वि। [50, इसी प्रकार पर्याप्त बादरतेजस्कायिक-रूप में उपपात का भी कथन करना चाहिए / 51. वाउकाइएसु, वणस्सतिकाइएसु य जहा पुढविकाइएसु उववातिओ तहेव चउक्कएणं भेएणं उववाएयव्यो। [51] जिस प्रकार पृथ्वीकायिक का चारों भेदों सहित उपपात कहा, उसी प्रकार वायुकायिक और वनस्पतिकायिक का भी चार-चार भेद सहित उपपात कहना चाहिए। 52. एवं पज्जत्तवापरतेउकाइयो वि एएसु चेव ठाणेसु उवधातेयवो। [52] इसी प्रकार पर्याप्त बादरतेजस्कायिक जीव का उपपात भी इन्हीं स्थानों में जानना चाहिए / 53. वाउकाइय-वणस्सतिकाइयाणं जहेव पुढविकाइयत्ते उववातिम्रो तहेव भाणियन्यो। [53] जिस प्रकार पृथ्वीकायिक जीव के रूप में उपपात का कथन किया, उसी प्रकार वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीवों के उपपात का कथन करना चाहिए। 54. अपज्जत्तसुहमपढविकाइए णं भंते ! उड्ढलोकखेत०'जे भयिए अहेलोगखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते अपज्जत्तसुहमकाइयत्ताए उववज्जित्तए से णं भंते ! कतिस०? एवं उड्ढलोगखेतनालीए वि बाहिरिल्ले खेत्ते समोहयाणं आहेलोगखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते उववज्जताणं सो चेव गमो निरवसेसो भाणियम्वो जाव बायरवणस्सतिकाइओ पज्जत्तो बादरवणस्सइकाइएसु पज्जत्तएसु उववातियो। [54 प्र.] भगवन् ! जो अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव ऊर्ध्वलोकक्षेत्रीय सनाडी के बाहर के क्षेत्र में मरणसमुद्घात करके, अधोलोकक्षेत्रीय त्रसनाडी के बाहर के क्षेत्र में अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिकरूप से उत्पन्न होने योग्य है तो भंते ! वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? [54 उ.] गौतम ! ऊर्ध्वलोकक्षेत्रीय त्रसनाडी के बाहर के क्षेत्र में मरणसमुद्धात करके अधोलोकक्षेत्रीय असनाडी के बाहर के क्षेत्र में उत्पन्न होने वाले पृथ्वीकायिकादि के लिए भी वहीं समग्र पूर्वोक्त गमक यावत् पर्याप्त बादरवनस्पतिकायिक जीव का पर्याप्त बादरवनस्पतिकायिकरूप में उपपात तक कथन यहाँ करना चाहिए। 55. [1] अपज्जतसुहमपुढविकाइए णं भंते ! लोगस्स पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहते, समोहणित्ता जे भविए लोगस्स पुरथिमिल्ले चरिमंते अपज्जत्तसुहमपुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए से गं भंते ! कइसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy