________________ 206] व्याख्याप्रज्ञप्तिसून * सप्तम उद्देशक में अन्यतीथिकों के द्वारा प्रदत्तादान को लेकर स्थविरों पर आक्षेप एवं स्थविरों द्वारा प्रतिवाद का निरूपण है / अन्त में गति प्रवाद (प्रपात) के पांच भेदों का निरूपण है / अष्टम उद्देशक में मुण, गति, समूह, अनुकम्पा, श्रुत एवं भावविषयक प्रत्यनीकों के भेदों का, निर्ग्रन्थ के लिए आचरणीय पंचविध व्यवहार का, विविध पहलुओं से ऐयापथिक और साम्परायिक कर्मबन्ध का, 22 परीषहों में से कौन-सा परिषह किस कर्म के उदय से उत्पन्न होता है, तथा सप्तविधबन्धक आदि के परीषहों का निरूपण है। तदनन्तर उदय, अस्त और मध्याह्न के समय में सूर्यो की दूरी और निकटता के प्रतिभासादि का एवं मानुषोत्तर पर्वत के अन्दर-बाहर के ज्योतिष्क देवों व इन्द्रों के उपपातबिरहकाल का वर्णन है। नवम उद्देशक में विस्त्रसाबन्ध के भेद-प्रभेद एवं स्वरूप का, प्रयोगबन्ध, शरीर-प्रयोगबन्ध एवं पंच शरीरों के प्रयोगबन्ध का सभेद निरूपण है / पंच शरीरों के एक दूसरे के बन्धक प्रबन्धक की चर्चा तथा औदारिकादि पांच शरीरों के देश-सर्वबन्धकों एवं बन्धकों के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा है। * दशम उद्देशक में श्रुत-शील की आराधना-विराधना की दृष्टि से अन्यतीथिक-मतनिराकरण पूर्वक स्वसिद्धान्त का ज्ञान-दर्शन-चारित्र की आराधना, इनका परस्पर सम्बन्ध एवं इनकी उत्कृष्ट-मध्यम-जघन्याराधना के फल का, तथा पुद्गलपरिणाम के भेद-प्रभेदों का, एवं पुद्गलास्तिकाय के एक प्रदेश से लेकर अनन्त प्रदेश तक के अष्ट भंगों का निरूपण है। अन्त में अष्ट कर्मप्रकृतियाँ, उनके अविभागपरिच्छेद, उनसे आवेष्टित-परिवेष्टित समस्त संसारी जीवों की एवं कर्मों के परस्पर सहभाव को वक्तव्यता है।' 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) विषयसूची Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org