SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1388
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बारहवां शतक : उद्देशक 1] [123 __ संखा ! कोहवस णं जीवे आउयवज्जाओ सत्त कम्मपगडोश्रो सिढिलबंधणबद्धामो एवं जहा पढमसले प्रसंवुडस्स अणगारस्स' (स० 1 उ० 1 सु० 19) जाव अणुपरियट्टइ। [26 प्र.] इसके बाद उस शंख श्रमणोपासक ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दना-नमस्कार किया और फिर इस प्रकार पूछा--"भगवन् ! क्रोध के वश आर्त बना हुआ जीव क्या (कौनसे कर्म) बाँधता है ? क्या करता है ? किसका चय करता है और किसका उपचय करता है ? [26 उ.] शंख ! क्रोधवश आर्त बना हुआ जीव अायुप्यकर्म को छोड़ कर शेष सात कर्मों की शिथिल बन्धन से बंधी हुई (कम-) प्रकृतियों को गाढ (दृढ) बन्धन वाली करता है, इत्यादि, प्रथम शतक (प्रथम उद्देशक सू. 11) में (उक्त) असंवृत अनगार के वर्णन के समान यावत् वह संसार में परिभ्रमण करता है, यहाँ तक जान लेना चाहिए। 27. माणवसट्टणं भंते ! जोवे ? एवं चेव। [27 प्र.] भगवन् ! मान-वश प्रात बना हुआ जीव क्या बांधता है ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [27 उ.] इसी प्रकार (क्रोधवशात जीवविषयक कथन के अनुसार) जान लेना चाहिए / 28. एवं मायावसट्ट वि / एवं लोभवस? वि जाव अणुपरियट्टइ। [28] इसी प्रकार माया-वशात जीव के विषय में भी, तथा लोभवशात जीव के विषय में भी, यावत्-संसार में परिभ्रमण करता है, यहाँ तक जानना चाहिए। विवेचन-क्रोधादि कषाय : परिणाम-पृच्छा---प्रस्तुत तीन सूत्रों में क्रोधादि कषाय का फल शंख श्रावक ने भगवान से पूछा। उसका रहस्य यह है कि पुष्कली आदि श्रावकों को शंख के प्रति थोड़ा-सा क्रोध उत्पन्न हो गया था, उसे उपशान्त करना था / भगवान् ने क्रोधादि चारों कषायों का कटु फल इस प्रकार बताया-क्रोधादिवशात जीव शिथिल बन्धन से बद्ध 7 कर्मप्रकृतियों को गाढवन्धनबद्ध करता है, अल्पकालीन स्थिति वालो कर्म प्रकृतियों को दीर्घकालीन स्थिति वाली करता है, मन्द अनुभाग बाली प्रकृतियों को तीव्र अनुभाग वाली करता है, अल्पप्रदेश वालो प्रकृतियों को बहुत प्रदेश बाली करता है और प्रायुष्यकर्म को कदाचित् बाँधता है, कदाचित् नहीं बाँधता, असाताबेदनीय कर्म का बार-बार उपार्जन करता है। अनादि-अनवदग्न-अनन्त दीर्घमार्ग वाले चातुर्गतिक संसाररूपी अरण्य में बार-बार पर्यटन-परिभ्रमण करता है। 1. देखिये वह पाठ-........."णियबंधणबद्धानो पकरेति, हस्सकालदितीयाओ दीहकालदितीयायो पक रेति, मदाणुभागाप्रो तिव्वाणुभागानो पकरेति, अप्पपदेसग्गामो बहुप्पदेसम्गाप्रो पकरेति, प्राउगं च ण कम्म सिय बंधति, सिय नो बंधाते, असातावेदणिज्जं च णं कम्मं भज्जो भज्जो उचिणाति, अणादीयं च ण प्रणवदग्गं दीहमद्ध' चाउरंतं संसारकतारं अपरियटइ।" ---भग, श. 1 उ. 1 सु. 11, खण्ड-१, प्र-३७ 2. (क) भगवती. अभय. पति, पत्र 556 (ख) व्याख्याप्रजाप्ति सूत्र (आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर) खण्ड 1, पृ. 37 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy