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________________ जैन ग्रागमों में उस युग की सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और आर्थिक परिस्थितियों का भी यत्र-तत्र चित्रण हया है। समाज और संस्कृति का अध्ययन करने वाले शोधार्थियों के लिए यह सामग्री बहुत ही दिलचस्प और ज्ञानवर्द्धक है। भाषाविज्ञान और अन्य अनेक दष्टियों से जैन आगमों का अध्ययन चिन्तन की अभिनव सामग्री प्रदान करने में सक्षम है। जैन आगमों का मूल स्रोत वेद नहीं कितने ही पाश्चात्य और पौर्वात्य विज्ञों का यह अभिमत है कि जैन श्रामम-साहित्य में जो चिन्तन आया है, उसका मूल स्रोत वेद है। क्योंकि वर्तमान में जितना भी साहित्य है, उन सबमें प्राचीनतम साहित्य वेद है / ऋग्वेद विश्व का प्राचीनतम ग्रन्थ है किन्तु प्राधुनिक अन्वेषणा ने उन विज्ञों के मत को निरस्त कर दिया है। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के उत्खनन में प्राप्त ध्वंसावशेषों ने यह सिद्ध कर दिया है कि प्रार्यों के भारत में आने के पूर्व भारतीय संस्कृति और धर्म पूर्ण रूप से विकसित था ! शोधार्थी मनीषियों का यह मानना है कि जो आर्य भारत में बाहर से प्राए थे, उन आर्यों ने वेदों की रचना की / जब वेदों में भारतीय चिन्तन का सम्मिश्रण हुआ तो वेद जो अभारतीय थे; वे भारतीय चिन्तन के रूप में विज्ञों के द्वारा मान्य किए गए। आर्य भ्रमणशील थे, भ्रमणशील होने के कारण उनकी संस्कृति अच्छी तरह से विकसित नहीं हुई थी जबकि भारत के आद्य निवासियों की संस्कृति स्थिर संस्कृति थी। वे एक स्थान पर ही अवस्थित थे, इस कारण उनकी संस्कृति पार्यों की संस्कृति से अधिक विकसित थी, वह एक प्रकार से नामरिक संस्कृति थी। बाहर से पाने वाले प्रायों की अपेक्षा यहाँ के लोग अधिक सुसंस्कृत थे / जब हम वेदों का संहिता विभाग और ब्राह्मण ग्रन्थों का गहराई से अध्ययन करते हैं तो उन ग्रन्थों में प्रार्यों के संस्कारों का प्राधान्य दग्गोचर होता है, पर उसके पश्चात् लिखे गये प्रारण्यक, उपनिषद्, धर्मशास्त्र, स्मतिशास्त्र मादि जो वैदिक परम्परा का साहित्य है, उसमें काफी परिवर्तम हुआ है। बाहर से आए हुए आर्यों ने भारतीय संस्कारों को इस प्रकार से ग्रहण किया कि वे अभारतीय होने पर भी भारतीय बन गए / इन नये संस्कारों का मूल अवैदिक परम्परा में रहा हा है। वह अवैदिक परम्परा जैन और बौद्ध परम्परा है / अवैदिक परम्परा के प्रभाव के कारण ही जिन विषयों की चर्चा वेदों में नहीं हुई, उनको चर्चा उपनिषद् प्रादि में हुई है। वेदों में आत्मा, पुनर्जन्म, व्रत ग्रादि की चर्चाएं नहीं थी, पर उपनिषदों में इन पर खुलकर चर्चाएं हुई हैं और आचारसंहिता में भी परिवर्तन पाया है। इस परिवर्तन का मूल आधार अवैदिक परम्परा रही है। दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है कि वेदों के पश्चात् जो ग्रन्थ निर्मित हुए उन पर श्रमणसंस्कृति को छाप स्पष्ट रूप से निहारी जा सकती है। वेदों में सृष्टितत्त्व के सम्बन्ध में चिन्तन किया गया है तो श्रमण संस्कृति में संसारतत्त्व पर गहराई से विचार किया गया है / वैदिक दृष्टि से सृष्टि के मूल में एक ही तत्त्व है तो श्रमणसंस्कृति ने संसारतत्त्व के मूल में जड़ और चेतन ये दो तत्त्व माने हैं। वैदिक परम्परा में सुष्टि कब उत्पन्न हुई ? इस सम्बन्ध में विचार व्यक्त किया गया है तो श्रमणसंस्कृति की दृष्टि से संसार चक्र अनादि काल से चल रहा है / उसका न तो प्रादि है और न अन्त ही है / वेदों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मवयं और अपरिग्रह इन महाव्रतों की चर्चा नहीं हुई है। यहाँ तक कि हिंसा और परिग्रह पर बल दिया गया है। वाजसनेयीसंहिता30 में पुरुषमेधयज्ञ में 184 पुरुषों के वध 29. Indian Pattern of Life and Thought-A Glimpse of its early phases;--Indo-Asian Culture---Page 47. Publication year 1959.-Dr. R. N. Dandekar. 30. वाजसनेयी संहिता, 30 / [17] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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