SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 2092
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महावीर उसे स्कन्ध कहते हैं। महावीर की रष्टि से अणु बहुत ही सूक्ष्म है। वह स्कन्ध से पृथक् निरंश तस्व है। परमाणपुदगल 23 अविभाज्य है, प्रच्छेद्य है, अभेद्य है, भदाह्य है। ऐसा कोई उपाय, उपचार या उपाधि नहीं जिससे उसका विभाग किया जा सके / किसी भी तीक्ष्णातितीक्ष्ण पास्त्र और अस्त्र से उसका विभाग नहीं हो सकता। जाज्वल्यमान अग्नि उसे जला नहीं सकती। महामेघ उसे आई नहीं बना सकता। यदि वह गंगा नदी के प्रतिस्रोत में प्रविष्ट हो जाए तो वह उसे बहानहीं सकता। परमाणुपुद्गल अनर्थ है, अमध्य है, प्रप्रदेशी है, सार्ध नहीं है, समध्य नहीं है, सम्प्रवेशी नहीं है / 24 परमाण न लम्बा है, न चौड़ा है और न गहरा है / वह इकाई रूप है / सूक्ष्मता के कारण वह स्वयं आदि है, स्वयं मध्य है और स्वयं अन्त है / 25 जिसका ग्रादि-मध्य-अन्त एक ही है, जो इन्द्रियग्राह्य नहीं है, अविभागी है, ऐसा द्रव्य परमाण है। जीवविज्ञान परमाणु के सम्बन्ध में ही नहीं जीवविज्ञान के सम्बन्ध में भी भगवान महावीर ने जो रहस्य उद्घाटित किए हैं, वे अद्भुत हैं, अपूर्व हैं। भगवान महावीर ने जीवों को छह निकायों में विभक्त किया है। सनिकाय के जीव प्रत्यक्ष हैं। वनस्पतिनिकाय के जीव भी प्राधुनिक विज्ञान के द्वारा मान्य किए जा चुके है, किन्तु प्राधुनिक विज्ञान पृथ्वी, पानी, अग्नि और वायु---इन चार निकायों में जीव नहीं समझ पाया है। भगवान महावीर ने पथ्वी, पानी, अग्नि और वायू में केवल जीव का अस्तित्व ही नहीं माना है अपितु उनमें प्राहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा, क्रोधसंज्ञा, मानसंज्ञा, मायासंज्ञा, लोभसंज्ञा और लोकसंज्ञा का भी अस्तित्व माना है। वे जीव श्वासोच्छवास भी लेते हैं। मानव जैसे श्वास के समय प्राणवायु ग्रहण करता है वैसे पृथ्वीकाय, अपकाय, बनस्पतिकाय आदि के जीव श्वास काल में केवल वायु को ही ग्रहण नहीं करते अपितु पृथ्वी, पानी, वायु, वनस्पति और अग्नि, इन सभी के पुदगल द्रव्यों को भी ग्रहण करते हैं / पृथ्वीकाय के जीवों में भी पाहार की इच्छा होती है। वे प्रतिपल, प्रतिक्षण आहार ग्रहण करते रहते हैं। उनमें एक इन्द्रिय होती है और वह है स्पर्श-इन्द्रिय / उसी से उनमें चैतन्य स्पष्ट होता है, अन्य चैतन्य की धाराएं उनमें अस्पष्ट होती हैं / पृथ्वीकायिक जीबों का अल्पतम जीवनकाल अन्तमुहर्त का है और उत्कृष्ट जीवनकाल 22000 वर्ष का है। आधुनिक विज्ञान ने वनस्पति के जीवों के सम्बन्ध में अध्ययन कर उसके सम्बन्ध में अनेक रहस्यों को अनावृत किया है। स्नेहपूर्ण सद्व्यवहार से वनस्पति प्रफुल्लित होती है और पृणापूर्ण व्यवहार से मुरझा जाती है / इस प्रकार की अनेक बातें जीवविज्ञान के सम्बन्ध में पागम साहित्य में आई हैं, जिसे सामान्य बुद्धि ग्रहण नहीं कर पाती। इसी तरह भूगोल और खगोल विद्या के सम्बन्ध में भी जैम पागम साहित्य में पर्याप्त सामग्री है। वैज्ञानिक अभी तक जितना जान पाए हैं, उससे अधिक सामग्री अज्ञात है। केवल पौराणिक चिन्तन कहकर उस सामग्री की उपेक्षा नहीं की जा सकती / अन्वेषणा करने पर अनेक नए तथ्य उजागर हो सकते हैं / वैज्ञानिकों को चिन्तन करने के लिए नई दृष्टि प्रदान कर सकते हैं। 23. भगवती, 57 24. भगवती, 57 25. राजवातिक, 525 // 1 26. सर्वार्थसिद्धि टीका-सूत्र 5 / 25 27. भगवती, 9 / 34 / 253-254 28. भगवती, 111132 [16] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy