________________ का संकेत किया गया है। ऋग्वेद,3' विष्णुस्मृति,३२ मनुस्मृति 33 आदि ग्रन्थों में भी यज्ञ-याग के लिए की गई हिंसा को हिंसा नहीं समझा गया है। 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति' जैसे गहित सूत्र बनाए गए थे। श्रमणसंस्कृति के दिव्य प्रभाव से ही वेदों के पश्चात् निर्मित साहित्य में यतों की चर्चाएं हुई हैं / डॉ. हरमन जैकोबी का अभिमत है कि जैनों ने अपने ब्रत ब्राह्मणों से उधार लिए हैं३४ / ब्राह्मण संन्यासी अहिंसा, सत्य, अचौर्य, सन्तोष और मुक्तता उन महावतों का पालन करते थे जो आगे चलकर जैन महाव्रतों का प्राधार बने, पर जैकोबी की इस कल्पना का कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है। बौधायन में उल्लिखित व्रतों के आधार पर डॉ. जैकोबी ने जो कल्पना को है, वह सत्य तथ्य से परे है। क्योंकि व्रत का सम्बन्ध संन्यास आश्रम से है / वेदों में संन्यास आश्रम की कोई चर्चा नहीं है / वैदिक युग में ब्रह्मचर्य और गृहस्थ ये दो ही व्यवस्थाएं थीं / संन्यास की चर्चा उपनिषत्काल में प्रारम्भ हुई / बहदारण्यक में संन्यास का उल्लेख अवश्य हना है 35 | जाबालोपनिषद् में चार पाश्रमों की व्यवस्था प्राप्त है 36 / उपनिषदसाहित्य के पूर्व वैदिक परम्परा में पुत्रषणा, वित्तषणा और लोकैषणा की प्रधानता थी / तैत्तिरीयसंहिता में वर्णन है कि ब्राह्मण तीन ऋणों के साथ जन्म ग्रहण करता है। ऋषियों के ऋण से मुक्त होने के लिए ब्रह्मचर्य है / देवों के ऋण से मुक्त होने के लिए यज्ञ है और पितरों के ऋण से उऋण होने के लिए पुत्रवान् होना पावश्यक है 3 | एक बार वेधस राजा ने नारद ऋषि से पूछा---पुत्र से क्या लाभ ? नारद ने उत्तर प्रदान करते हुए कहा- यदि पिता अपने पुत्र का मुख देख ले तो पित-ऋण से मुक्त हो जाता है और अमर बन जाता है / इस प्रकार वैदिक परम्परा में पुत्र को प्रधानता रही है। उसे त्राता माना है, जबकि जैनपरम्परा में पुत्र को प्राता नहीं माना है 36 / वैदिक परम्परा में गृहस्थ-आश्रम को सबसे प्रमुख प्राश्रम माना है--जिस प्रकार नदी और नद सागर में प्राक र स्थिर हो जाते हैं, वैसे ही सभी पाश्रम गृहस्थ-पाश्रम में स्थिर होते हैं४० / इससे यह स्पष्ट है कि संन्यास और व्रतकी परम्परा श्रमणधर्म की देन है / श्रमणधर्म से ही वैदिक परम्परा ने व्रत प्रादि को ग्रहण किया है। वेद, ब्राह्मण 31. ऋग्वेद, 10 1901 / 24 / 309 / 3 / 32. सेकेड बुक्स ऑफ द ईस्ट, जिल्द 7,51,61-63 / 33. मनुस्मति 5 / 22 / 29 / 44 / / 34. "It is therefore probable that the Jainas have borrowed their own vows from the Brahmans, Not from the Buddhists" -The Sacred Books of the East, Vol. XXII, Introduction p. 24. 35. बृहदारण्यकोपनिषद्, 4 / 4 / 22 / 36. (क) जाबालोपनिषद् 4 / (ख) वशिष्ठ धर्मशास्त्र७।१ / 2 // 37. तैत्तिरीयसंहिता 6 / 3 / 10 / 5 / 38. ऋणमस्मिन सनयत्यमतत्त्वं च गच्छति / पिता पुत्रस्य जातस्य पश्येच्चेज्जीवतो मुखम् / / --ऐतरेय ब्राह्मण, 7 वीं पंचिका, अध्याय 3 39. जाया य पुत्ता न हवन्ति ताणं / -उत्तराध्ययन अ. 14, श्लो. 12 40. गृहस्थ एव यजते, गृहस्थस्तप्यते तपः / चतुर्णामश्नमाणं तु, गहस्थश्च विशिष्यते / / यथा नदी नदा: सर्वे, समुद्र यान्ति संस्थितिम / एवामाश्रमिणः सर्वे, गृहस्थे यान्ति संस्थितिम् / / --बशिष्ठ-धर्मशास्त्र 8 / 14-15 [18] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org