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________________ 406] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [11-2 प्र.| भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा गया कि भक्तप्रत्याख्यान करने वाला अनगार" पूर्वोक्त रूप से आहार करता है ? [11-2 उ.] गौतम ! भक्तप्रत्याख्यान करने वाला (कोई) अनगार (प्रथम) मूच्छित यावत् अत्यन्त आसक्त हो कर आहार करता है / इसके पश्चात् स्वाभाविक रूप से काल करता है / इसके बाद आहार के विषय में प्रमूच्छित यावत् अगृद्ध (अनासक्त) हो कर प्राहार करता है / इसलिए हे गौतम ! भक्तप्रत्याख्यान करने वाला (कोई-कोई) अनगार पूर्वोक्त रूप से यावत् पाहार करता है। विवेचन-भक्तप्रत्याख्यान करने वाले किसी-किसी अनगार की ऐसी स्थिति हो जाती है। इसलिए यहाँ उसके मनोभावों के उतार-चढ़ाव का चित्रण किया गया है / भक्तप्रत्याख्यान करने से पूर्व अथवा भक्तप्रत्याख्यान कर लेने के पश्चात् तीव्र क्षुधावेदनोय कर्म के उदयवश वह पहले अाहार में मूच्छित, गृद्ध यावत् अत्यासक्त होता है। फिर वह मारणान्तिक समुद्घात करता है / तत्पश्चात् वह उस (मा. समु.) से निवृत्त होकर मूच्छी, गद्धि यावत् प्रासक्ति से रहित हो कर प्रशान्त परिणाम पूर्वक आहार का उपयोग करता है। अर्थात्-पाहार के प्रति वह मूर्छा प्रोर आसक्ति रहित बन जाता है / यह समाधान वृत्तिकार का है। प्रकारान्तर से आशय-धारणा के अनुसार इसको अर्थसंगति इस प्रकार से है-पंथारा (यावज्जीव अनशन) करके काल करने वाला अनगार जब काल करके देवलोक में उत्पन्न होता है, तब उत्पन्न होते हो वह प्रासक्ति और गृद्धिपूर्वक ग्राहार ग्रहण करता है, तदनन्तर वह आसक्ति-रहित होकर आहार करता है। कठिन शब्दों के भावार्थ-मुच्छिए-मूच्छिा --ग्राहारसंरक्षण में अनुबद्ध अथवा उक्त (पाहार) दोष के विषय में मूढ या मोहवश / गिद्ध-गद्ध-प्राप्त ग्राहार के विषय में प्रासक्त, या अतृप्त होने से उक्त सरस आहार के विषय में लालसायुक्त / अन्झोवन्ने-अध्युपपन्नासक्त, अप्राप्त आहार की चिन्ता में अत्यधिक लीन / आहारं आहारेइ-वायु, तेलमालिश आदि आदि या मोदकादि अाहार्य पदार्थ हैं। तीव्र क्षुधावेदनीय कर्म के उदय से असमाधि उत्पन्न होने पर उसके उपशमनार्थ पूर्वोक्त आहार का उपभोग करता है / वोससाए–विश्रसा--स्वाभाविक रूप से / काल करेइ-काल (मरण) के समान काल-~मारणान्तिकसमुद्घात-करता है / लवसप्तम-देव : स्वरूप एवं दृष्टान्तपूर्वक कारण-निरूपण 12. [1] अस्थि गं भंते ! 'लवसत्तमा देवा, लवसत्तमा देवा' ? हंता, अस्थि / [12-1 प्र.] भगवन् ! क्या लवसप्तम देव 'लवसप्तम' होते हैं ? [12-1 उ.] हाँ, गौतम ! होते हैं। 1. भगवती अ. वृत्ति, पत्र 650 2. भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2337-2338 3. भगवती. आ. अत्ति, पत्र 650 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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