________________ चौदहवां शतक : उद्देशक 7] [405 (2) न्यग्रोध-परिमण्डल-वटवृक्ष को न्यग्रोध कहते हैं। जैसे—वटवृक्ष ऊपर के भाग में फैला हुग्रा और नीचे के भाग में संकुचित होता है. वैसे ही जिस संस्थान में नाभि के ऊपर का भाग विस्तृत-अर्थात्-सामुद्रिक शास्त्र में बताए हुए प्रमाण वाला हो और नीचे का भाग हीन अवयव वाला हो, उसे 'न्यग्रोध-परिमण्डलसंस्थान' कहते हैं / (3) सादि-संस्थान-सादि का अर्थ है-नाभि के नीचे का भाग / जिस संस्थान में नाभि के नीचे का भाग पूर्ण हो और ऊपर का भाग हीन हो, उसे सादि-संस्थान कहते हैं / इसका नाम कहीं. कहीं साची संस्थान भी मिलता है। साची कहते हैं- शाल्मली (समर) के वृक्ष को। शाल्मली वृक्ष का धड़ जैसा पुष्ट होता है, वैसा उसका ऊपर का भाग नहीं होता। इसी प्रकार जिस शरीर में नाभि के नीचे का भाग परिपुष्ट या परिपूर्ण हो, किन्तु ऊपर का भाग हीन हो, वह साची-संस्थान होता है। (4) कुब्जक-संस्थान-जिस शरीर में हाथ, पैर, सिर, गर्दन आदि अवयव ठीक हों, परन्तु छाती, पीठ, पेट आदि टेढ़े-मेढ़े हों, उसे कुजक-संस्थान कहते हैं। (5) वामन-संस्थान—जिस शरीर में छाती, पीठ, पेट प्रादि अवयव पूर्ण हों, किन्तु हाथ, पैर प्रादि अवयव छोटे हों, उसे वामन-संस्थान कहते हैं / (6) हुण्डक-संस्थान--जिस शरीर में समस्त अवयव बेडौल हों, अर्थात्-एक भी अवयव सामुद्रिक शास्त्र के प्रमाणानुसार न हो, उसे हुण्डक-संस्थान कहते हैं / ' अनशनकर्ता अनगार द्वारा मूढता-अमूढतापूर्वक आहाराध्यवसाय-प्ररूपणा 11. [1] भत्तपच्चक्खायए णं भंते ! अणगारे मुच्छिए जाव अज्झोववन्ने आहारमाहारेइ, अहे गं बीससाए कालं करेति ततो पच्छा अमुच्छिते अगिद्ध जाव अणज्झोववन्ने आहारमाहारेइ ? हंता, गोयमा ! भत्तपच्चक्खायए णं अणगारे तं चेव / / [11-1 प्र.] भगवन् ! भक्तप्रत्याख्यान (आहार का त्याग करके यावज्जीव अनशन) करने वाला अन गार क्या (पहले) मूच्छित यावत् अत्यन्त आसक्त होकर आहार ग्रहण करता है, इसके पश्चात् स्वाभाविक रूप से काल (मृत्यु प्राप्त) करता है और तदनन्तर अमूच्छित, अगृद्ध यावत् अनासक्त होकर आहार करता है ? [11-1 उ.] हाँ, गौतम ! भक्तप्रत्याख्यान करने वाला अनगार पूर्वोक्त रूप से आहार करता है। [2] से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चति भत्तपच्चवखायए णं अण०' तं चेव ? गोयमा ! भत्तपच्चवखायए णं अणगारे मुछिए जाव अज्झोववाने आहारे भवइ, अहे णं वीससाए कालं करेइ तओ पच्छा अमुच्छिते जाव आहारे भवति / से तेण?णं गोयमा ! जाव आहारमाहारेति / 1. (क) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2336 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पब 649-650 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org