________________ नवम शतक : उद्देशक-३३] [551 [77] तब औषपातिकसूत्र में वणित कणिक के वर्णनानुसार क्षत्रियकुमार जमालि (दीक्षार्थी के रूप में) हजारों (व्यक्तियों) को नयनावलियों द्वारा देखा जाता हुआ यावत् (क्षत्रियकुण्डग्राम नगर के बीचोंबीच होकर) निकला / फिर ब्राह्मणकुण्डग्राम नगर के बाहर बहुशालक नामक उद्यान के निकट आया और ज्यों ही उसने तीर्थकर भगवान के छत्र आदि अतिशयों को देखा, त्यों ही हजार पुरुषों द्वारा उठाई जाने वाली उस शिविका को ठहराया और स्वयं उस सहस्रपुरुषवाहिनी शिविका से नीचे उतरा। 78. तए णं तं जमालि खत्तियकुमारं अम्मा-पियरो पुरओ काउं जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उबागच्छइ; तेणेव उवागच्छित्ता, समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव नमंसित्ता एवं वदासी--- एवं खलु भंते ! जमाली खत्तियकुमारे अम्हं एगे पुत्ते इठे कते जाय किमंग पुण पासणयाए ? से जहानामए उप्पले इ वा पउमे इ वा जाव' सहस्सपत्ते इ वा पंके जाए जले संबुड्ढे गोवलिप्पति पंकरएणं णोवलिप्पइ जलरएणं एवामेव जमाली वि खत्तियकुमारे काहि जाए भोगेहि संवुड्ढे गोवलिप्पइ कामरएणं पोवलिप्पइ भोगरएणं गोवलिप्पइ मित्त-णाइ-नियग-सयण-संबंधि-परिजणेणं, एस णं देवाणुप्पिया ! संसारभउचिग्गे, भीए जम्मण-मरणेणं देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पन्वयइ, तं एयं णं देवाणुप्पियाणं अम्हे सोसभिक्खं दलयामो, पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया सोसभिक्खं / [78] तदनन्तर क्षत्रियकुमार जमालि को आगे करके उसके माता-पिता, जहाँ श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहाँ उपस्थित हुए और श्रमण भगवान् महावीर को दाहिनी ओर से तोन वार प्रदक्षिणा की, यावत् वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार कहा--- भगवन् ! यह क्षत्रियकुमार जमालि, हमारा इकलौता, इप्ट, कान्त और प्रिय पुत्र है / यावत्-इसका नाम सुनना भी दुर्लभ है तो दर्शन दुर्लभ हो, इसमें कहना ही क्या ! जैसे कोई कमल (उत्पल), पद्म या यावत् सहस्रदलकमल कीचड़ में उत्पन्न होने और जल में संवद्धित (बड़ा) होने पर भी पंकरज से लिप्त नहीं होता, न जलकण (जलरज) से लिप्त होता है, इसी प्रकार क्षत्रियकुमार जमालि भी काम में उत्पन्न हमा, भोगों में संवद्धित (बड़ा) हा; किन्तु काम में रचमात्र भी लिप्त (ग्रासक्त) नहीं हया और न ही भोग के अशमात्र से लिप्त (ग्रासक्त) हुआ और न यह मित्र, ज्ञाति, निज-सम्बन्धी, स्वजनसम्बन्धी और परिजनों में लिप्त हुआ है। हे देवानुप्रिय ! यह संसार-(जन्म-मरणरूप) भय से उद्विग्न हो गया है, यह जन्म-मरण (के चक्र) के भय से भयभीत हो चुका है। अतः आप देवानुप्रिय के पास मुण्डित हो कर, अगारवास समंता सुयंधवरकुसुमधुण्ण-उग्विद्धवासरेणुमइलं णमं करते कालागुरु-पवर कुदुरुक्क-तुरुक्क-घूवनिक्हेण जीवलोयं इव वासयंते", समंतओ खुभियचकवालं.", पउरजण-बाल-बुड्डपमुइयतुरियपहावियविउलाउलबोलबहुलं नभं करेंते "त्तियकुडग्गामस्स नयरस्स मज्झमाझेणं।" -भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 480-482, प्रौपपातिकसूत्र सू. 31-32, पत्र 68.75 1. 'जाब' पद मूचित पाठ-कुमुदे इ वा नलिणे इ वा सुभगे इ वा सोगंधिए इ वा इत्यादि / -भगवती. अ. वृत्ति पत्र 483 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org