________________ 55011 [ ध्याख्याप्रज्ञप्तिसून द्वारा तुम्हारी जय हो ! हे नन्द ! तुम्हारा भद्र (कल्याण) हो ! हे देव ! अखण्ड उत्तम ज्ञान-दर्शनचारित्र द्वारा (अब तक) अविजित इन्द्रियों को जीतो और विजित श्रमणधर्म का पालन करो / हे देव ! विघ्नों को जीत कर सिद्धि (मुक्ति) में जाकर बसो! तप से धैर्य रूपी कच्छ को अत्यन्त दृढतापूर्वक बांध कर राग-द्वेष रूपी मल्लों को पछाड़ो ! उत्तम शुक्लध्यान के द्वारा अष्टकर्मशत्रुओं का मर्दन करो! हे धोर ! अप्रमत्त होकर त्रैलोक्य के रंगमंच (विश्वमण्डप) में आराधनारूपी पताका ग्रहण करो (अथवा फहरा दो) और अन्धकार रहित (विशुद्ध प्रकाशमय) अनुतर केवलज्ञान को प्राप्त करो! तथा जिनवरोपदिष्ट सरल (अकुटिल) सिद्धिमार्ग पर चल कर परमपदरूप मोक्ष को प्राप्त करो ! परीषह-सेना को नष्ट करो तथा इन्द्रियग्राम के कण्टकरूप (प्रतिकूल) उपसर्गों पर विजय प्राप्त करो ! तुम्हारा धर्माचरण निर्विघ्न हो !" इस प्रकार से लोग अभिनन्दन एवं स्तुति करने लगे। विवेचन--विविध जनों द्वारा जमालिकुमार को आशीर्वाद, अभिनन्दन एवं स्तुति–प्रस्तुत सू. 76 में निरूपण है कि क्षत्रियकुण्ड से ब्राह्मणकुण्ड जाते हुए जमालिकुमार को मार्ग में बहुत-से धनार्थी, कामार्थी, भोगार्थी, कापालिक, भाण्ड, मागध, भाट आदि ने विविध प्रकार से अपने उद्देश्य में सफल होने का आशीर्वाद दिया, उसका अभिनन्दन एवं स्तवन किया / ' विशेषार्थ-अजियाइं जिणाहि-नहीं जीती हुई (इन्द्रियों) को जीतो। अभग्गेहि-अखण्ड / जिहणाहि-नष्ट करो। गंदा धम्मेण - धर्म से बढ़ो। गंदा–जगत् को प्रानन्द देने वाले। धितिधणियबद्धकच्छे-धैर्य रूपी कच्छे को दृढ़ता से बांध कर / महाहि-मर्दन करो। हराहि : दो अर्थ- (1) ग्रहण करो, (2) फहरा दो। तिलोक्करंगमज्झे-त्रिलोकरूपी रंगमंडप में। पायय-प्राप्त करो। परि सहचमु-परीषहरूपी सेना को / अभिभविय गामकंटकोवसम्गा--इन्द्रियग्रामों के कंटक रूप प्रतिकूल उपसर्गों को हरा कर / अविग्घमत्थु-निर्विघ्न हो। 77. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे नयणमालासहस्से हि पिच्छिज्जमाणे पिच्छिज्जमाणे एवं जहा उबवाइए कूपिओ जाव जिग्गच्छति, तिगच्छित्ता जेणेव माहणकुडग्गामे नगरे जेणेव बहुसालए चेइए तेणेव उवागच्छह, तेणेव उवागन्छित्ता छत्तादीए तित्थगरातिसए पासइ, पासित्ता पुरिससहस्सबाहिणि सीयं ठवेइ, ठवित्ता पुरिससहस्सवाहिणीओ सीयाओ पच्चोरुहइ / 1. वियाहपत्तिगुतं भा. 1 (मू. पा. टि.), पृ. 472-473 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 481-482 3. प्रोपपातिकसूत्रगत पाठ-बयणमालासहस्सेहिं अभिथुन्यमाणे अभियुबमाणे, हिययमालासहस्सेहिं अभिनं विज्ज माणे अभिनंदिज्जमाणे"", मणोरहमालासहस्सेहिं विच्छिप्पमाणे विच्छिष्पमाणे , कंति-रूव-सोहग्गजोवणगुणेहिं पस्थिज्जमाणे पस्थिज्जमाणे...", अंगुलिमालासहस्सेहिं दाइज्जमाणे दाइज्जमाणे, वाहिणहत्थेणं बहूणं नरनारिसहस्साणं अंजलिमालासहस्साई पच्छिमाणे पडिच्छमाणे, भवभित्तिसहस्साई समइच्छमाणे समइन्छमाणे, तंती-तल-ताल-गीयवाइयरबेणं " महुरेणं मणहरेणं 'जय जय' सवदुग्धोसमीसएणं मंजुमंजुणा घोसेणं अपडिबुज्दामाणे कंदरगिरिविवरकूहर-गिरिवर-पासादुद्धघणभवण-देवकुल-सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर-आरामुज्जाण-काणण-सभ-पप्पदेसभागे-देसभागे समइच्छमाणे कंदर-दरि-कुहर-विवर-गिरि-पायारऽट्राल-चरिय-दारगोउर-पासाय-दुधार-भवण-देवकुल-आरामुज्जाण-काणण-सभ-पएसे पडिसुयासयसहस्ससंकुले करेमाणे करेमाणे", हयहेसिय-स्थिगुलुगुलाइअ-रहघणघणाइय-सहमीसएणं महया कलकलरवेण य जणस्स सुमहुरेणं पूरतो अंबर, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org