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________________ उन्नीसवां शतक : उद्देशक 1] अधातीकर्मद्रव्य रूप भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि अयोगी के वली के अघाती कर्म होते हुए भी लेश्या नहीं होती / अतः लेश्या को योगान्तर्गत द्रव्यरूप मानना चाहिए / योग-द्रव्यों के सामर्थ्य के विषय में शंका नहीं करनी चाहिए। जिस प्रकार ब्राह्मी ज्ञानावरण के क्षयोपशम का और मद्यपान ज्ञानावरणोदय का निमित्त होता है; वैसे ही योगनित बाह्य द्रव्य भी कर्म के उदय या क्षयोपशमादि में निमित्त बनें, इसमें किसी शंका को अवकाश नहीं है ? ' सम्बध्यमान लेश्या और अवस्थित लेश्या-कृष्णलेश्यादि-द्रव्य जब नीललेश्यादि द्रव्यों के साथ मिलते हैं, तब वे नीललेश्यादि के स्वभाव रूप में तथा वर्णादि रूप में परिणत हो जाते हैं। जैसे दूध में छाछ डालने से वह दही रूप में तथा वस्त्र को किसी रंग के घोल में डालने से वह उस वर्ण के रूप में परिणत हो जाता है / परन्तु लेश्या का यह परिणाम सिर्फ तिर्यञ्च और मनुष्य की लेश्या की अपेक्षा से जानना चाहिए। देवों और नारकों में स्व-स्व-भव-पर्यन्त लेश्या-द्रव्य अवस्थित होने से अन्य लेश्याद्रव्यों का सम्बन्ध होने पर भी अवस्थित लेश्या अन्य लेश्या के परिणत नहीं होती / अर्थात् अवस्थित लेश्या अन्य लेश्या रूप में बिलकुल परिणत नहीं होती, अपितु अपने मूल वर्णादि स्वभाव को छोड़े बिना अन्य (सम्बध्ययान) लेश्या की छायामात्र धारण करती है। जैसे वैडूर्यमणि में लाल डोरा पिरोने पर वह अपने नीलवर्ण को छोड़े बिना लाल छाया को धारण करती है, इसी प्रकार कृष्णादि द्रव्य, अन्य लेश्याद्रव्यों के सम्बन्ध में आने पर अपने पर अपने मूल स्वभाव या वर्णादि को छोड़े बिना, उसकी छाया (आकारमात्र) को धारण करते हैं।' / / उन्नीसवां शतक : प्रथम उद्देशक समाप्त / 1. इसके विशेष वर्णन के लिए देखिये-प्रज्ञापना. १७वां पद टीका, पत्र 330 2. (क) देखिये-प्रज्ञापना. 17 वा पद, टीका, पत्र 358-368 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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