________________ 304] [व्याख्याप्रजप्तिसूत्र __ जिस प्रकार पुद्गलास्तिकाय के तीन प्रदेशों को अवगाहना के विषय में धर्मास्तिकायादि के एक-एक प्रदेश की वृद्धि की है ; उसी प्रकार पुद्गलास्तिकाय के चार, पांच आदि प्रदेशों की अवगाहना के विषय में भी एक-एक प्रदेश की वृद्धि करनी चाहिए। जहाँ पुद्गलास्तिकाय के अनन्त प्रदेश अवगाढ होते हैं, वहाँ धर्मास्तिकाय के कदाचित् एक, दो यावत् कदाचित् संख्यात, अथवा असंख्यात प्रदेश अवगाढ होते हैं। अनन्त नहीं; क्योंकि धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और लोकाकाश के अनन्त प्रदेश नहीं होते, असंख्यात ही होते हैं।' समग्र धर्मास्तिकायादि द्रव्य पर अन्य धर्मास्तिकायादि प्रदेशों का अवगाह-जहाँ समग्र धर्मास्तिकाय द्रव्य अवगाढ होता है, वहाँ धर्मास्तिकाय का अन्य एक भी प्रदेश अवगाढ नहीं होता / क्योंकि उसमें प्रदेशान्तरों का अभाव है / अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय के वहाँ असंख्य प्रदेश अवगाढ होते हैं / क्योंकि इनके असंख्य प्रदेश होते हैं। जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और अद्धासमय के अनन्त प्रदेश होते हैं. इसलिए इन पर अनन्त प्रदेश प्रवगाढ होते हैं / पांच एकेन्द्रियों का परस्पर अवगाहना-निरूपरण : दसवाँ जोवावगाढद्वार 64. [1] जत्थ णं भंते ! एगे पुढधिकाइए ओगाढे तत्थ केवतिया पुढविकाइया ओगाढा ? असंखेज्जा। [64-1 प्र.] भगवन् ! जहाँ एक पृथ्वीकायिक जीव अवगाढ होता है, वहाँ दूसरे कितने पृथ्वी कायिक जीव अवगाढ होते हैं ? [64-1 उ.] (गौतम ! वहाँ) असंख्य (पृथ्वीकायिक जीव अवगाढ होते हैं / ) [2] केवतिया आउक्काइया ओगाढा? असंखेज्जा। [64-2 प्र.] (भगवन् ! वहाँ) कितने प्रकायिक जीव अवगाढ होते हैं ? [64-2 उ.] (गौतम ! वहाँ अप्कायिक) असंख्य जीव (अवगाढ होते हैं / ) [3] केवतिया तेउकाइया ओगाढा ? असंखेज्जा। [64-3 प्र.] (भगवन् ! वहाँ) कितने तेजस्कायिक जीव अवगाढ होते हैं ? [64-3 उ.] (गौतम ! वहाँ तेजस्काय के) असंख्य जीव (अवगाढ होते हैं / ) [4] केवतिया वाउ० ओगाढा ? असंखेज्जा / . (क) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 5, पृ. 2220-2221 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 614-615 2. (क) वही, पत्र 615 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2221 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org