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________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 4 ] [305 [64-4 प्र.] (भगवन् ! वहाँ) वायुकायिक जीव कितने अवगाढ होते हैं ? [64.4 उ. (गौतम ! वहाँ) असंख्य जीव (अवगाढ होते हैं।) [5] केवतिया वणस्सतिकाइया ओगाढा ? अणंता। [64-5 प्र.] (भगवन् ! वहाँ) कितने वनस्पतिकायिक जीव अवगाढ होते हैं ? [64-5 उ.] (गौतम ! वहाँ वे) अनन्त (जीव अवगाढ होते हैं / ) 65. [1] जत्थ णं भंते ! एगे आउकाइए ओगाढे तत्थ णं केवतिया पुढवि० ? असंखेज्जा। [65-1 प्र. भगवन् ! जहाँ एक अप्कायिक जीव अब गाढ होता है, वहाँ कितने पृथ्वीकायिक जीव अवगाढ होते हैं ? [65-1 उ.] गौतम ! वहाँ असंख्य पृथ्वोकायिक जीव अवगाढ होते हैं / [2] केवतिया आउ० ? असंखेज्जा। एवं जहेव पुढविकाइयाणं वत्तव्वया तहेव सम्वेसि निरवसेसं भाणियन्वं जाव वणस्सतिकाइयाणं-जाव केवतिया वणस्सतिकाइया ओगाढा ? अर्थता। [65-2 प्र.] (भगवन् वहाँ) अन्य अप्कायिक जीव कितने प्रवगाढ होते हैं ? [65-2 उ.] (गौतम ! वहाँ वे) असंख्य अवगाढ होते हैं। जिस प्रकार पृथ्वीकायिक जीवों को वक्तव्यता कही, उसी प्रकार अन्यकायिक जीवों की समस्त वक्तव्यता, यावत् वनस्पतिकायिक तक कहनी चाहिए। (यथा) यावत्-[प्र.] 'वहाँ कितने वनस्पतिकायिक जीव अवगाढ होते हैं ?' [उ.] '(वहाँ) अनन्त अवगाढ होते हैं / ' विवेचन--प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. 64-65) द्वारा एकेन्द्रिय जीवों के परस्पर अवगाहन के विषय में दसवें जीवावगाढद्वार के माध्यम से प्रतिपादन किया गया है। पृथ्वीकायादि में से एक में, पृथ्वीकायादि पांचों प्रकार के जीवों को अवगाहनप्ररूपणा जहाँ एक पृथ्वोकायिक जीव अवगाढ है, वहाँ पृथ्वीकायिकादि चारों काय के असंख्य सूक्ष्म जीव अवगाढ हैं। जैसे कि कहा है-'जत्थ एगो, तत्थ नियमा असंखेज्जा।' किन्तु वहाँ वनस्पतिकाय के अनन्त जीव अवगाढ हैं / इसी प्रकार पांचों कायों के विषय में समझ लेना चाहिये / / धर्माधर्माऽकाशास्तिकायों पर बैठने आदि का दृष्टान्तपूर्वक निषेध-निरूपण : ग्यारहवाँ अस्तिप्रदेश-निषीदनद्वार 66. [1] एयंसि णं भंते ! धम्मस्थिकाय० अधम्मत्थिकाय० आगासस्थिकार्यसि चक्किया केइ आसइत्तए वा सइत्तए वा चिट्ठितए वा निसीइत्तए वा तुट्टित्तए वा ? 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 615 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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