________________ बौदहवां शतक : उद्देशक 3] |373 यावत् न पर्युपासना करता है / ऐसा वह देव भावितात्मा अनगार के बीच में होकर चला जाता है, किन्तु जो अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक देव होता है, वह भावितात्मा अनगार को देखता है / देख कर वन्दना-नमस्कार, सत्कार-सम्मान करता है, यावत् (कल्याण, मंगल, देव एवं ज्ञानमय मानता है) तथा पर्युपासना करता है / ऐसा वह देव भावितात्मा अनगार के बीच में होकर नहीं जाता। 2. असुरकुमारे णं भंते ! महाकाये महासरीरे०, एवं चेव / [2 प्र.] भगवन् ! क्या महाकाय और महाशरीर असुरकुमार देव भावितात्मा अनगार के मध्य में होकर जाता है ? [2 उ.] गौतम ! इस विषय में पूर्ववत् समझना चाहिए / 3. एवं देवदंडनो भाणियन्वो जाव वेमाणिए / [3] इसी प्रकार देव-दण्डक (भवनपति, वाणव्यन्तर ज्योतिष्क और) यावत् वैमानिकों तक. कहना चाहिए। विवेचन--जो देव मायी-मिथ्यादृष्टि होता है, वह भावितात्मा अनगार के बीच में होकर निकल जाता है, क्योंकि वह अनगार को देख कर भी उसके प्रति भक्तिमान नहीं होता है / इसलिए उसे वन्दनादि नहीं करता, न उसे कल्याण-मंगलादि रूप मान कर उसकी उपासना करता है / इसके विपरीत अमायी-सम्यग्दृष्टि देव, भावितात्मा अनमार को देखते ही उसे बन्दनादि करता है, कल्याणादि रूप मान कर उसकी उपासना करता है। अतः वह उसके बीच में होकर नहीं जाता / ऐसा चारों ही प्रकार के देवों के लिए कहा गया है।' देव-दण्डक ही क्यों ? ---देव-दण्डक का प्राशय है-चारों जाति के देवों में ही इस प्रकार की सम्भावना है। नैरयिकों तथा पृथ्वीकायिकादि जीवों के पास ऐसे साधन तथा सामर्थ्य सम्भव नहीं है। इसलिए इस प्रसंग में देव-दण्डक ही कहा गया है।' महाकाय, महाशरीर : दोनों में अन्तर यद्यपि काय और शरीर दोनों का अर्थ एक ही है, परन्तु यहाँ दोनों का अर्थ पृथक्-पृथक् है / यहाँ महाकाय का अर्थ है-प्रशस्तकाय वाला अथवा (बड़े) विशाल निकाय-परिवार वाला / महाशरीर का अर्थ है-विशाल काय शरीर वाला / वोइवएज्जा-. चला जाता है, लांघ जाता है। चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में सत्कारादि विनय-प्ररूपणा __4. अस्थि णं भंते ! नेरइयाणं सक्कारे ति वा सम्माणे ति वा किइकम्मे ति वा प्रभुटाणे इ वा अंजलिपग्गहे ति वा प्रासणाभिग्गहे ति वा आसणाणुप्पदाणे ति वा, एतस्त पच्चुग्गच्छणया, ठियस्स पज्जुवासणया, गच्छंतस्स पडिसंसाहणया ? नो तिण? सम?। 1. वियाह्मण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. 663-664 2. भगवती. अ. वृति, पत्र 637 3. महान् बृहन् प्रशस्तो वा कायो—निकायो यस्य स महाकायः / ___ महासरीरे त्ति बहत्तनुः // ---भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 636 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org