________________ 374] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [4 प्र.] भगवन् ! क्या नारकजीवों में (परस्पर) सत्कार, सम्मान, कृतिकर्म (वन्दन), अभ्युत्थान, अंजलिप्रग्रह, प्रासनाभिग्रह, आसनाऽनुप्रदान, अथवा नारक के सम्मुख (स्वागतार्थ) जाना, बैठे हुए आदरणीय व्यक्ति की सेवा (पर्युपासना) करना, उठ कर जाते हुए (सम्मान्य पुरुष) के पीछे (कुछ दूर तक) जाना इत्यादि विनय-भक्ति है ? [4 उ.] गौतम ! यह अर्थ (बात नैरयिकों में) समर्थ (शक्य, सम्भव) नहीं है / 5. अस्थि णं भंते ! असुरकुमाराणं सक्कारे ति वा सम्माणे ति वा जाव पडिसंसाहणता ? हंता, अस्थि / [5 प्र.) भगवन् ! असुरकुमारों में (परस्पर) सत्कार, सम्मान यावत् अनुगमन प्रादि विनयभक्ति होती है। [5 उ.] हाँ, गौतम ! है। 6. एवं जाव थणियकुमाराणं / [6] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार देवों तक (के विषय में कहना चाहिए।) 7. पुढविकाइयाणं जाव चरिदियाणं, एएसि जहा नेरइयाणं / [7] जिस प्रकार ने रयिकों के लिए कहा है, उसी प्रकार पृथिवीकायादि से ले कर यावत् चतुरिन्द्रिय जीवों तक जानना चाहिए। 8. अस्थि णं भंते ! पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं सरकारे ति वा जाव पडिसंसाधणया ? हंता, अस्थि, नो चेव णं आसणाभिग्गहे ति बा, आसणाणुप्पयाणे ति वा। [8 प्र.] भगवन् ! क्या पंचेन्द्रियतिर्यञ्च योनिक जीवों में सत्कार, सम्मान, यावत् अनुगमन आदि विनय है ? [8 उ.] हाँ, गौतम ! है, परन्तु इन में आसनाभिग्रह या आसनाऽनुप्रदानरूप विनय नहीं है / 9. मणुस्साणं जाव बेमाणियाणं जहा असुरकुमाराणं / [6] जिस प्रकार असुर कुमारों के विषय में कहा, उसी प्रकार मनुष्यों से लेकर यावत् वैमानिकों तक कहना चाहिए। विवेचन-प्रस्तुत छह सूत्रों (सू. 4 से 6 तक) में नैरयिकों से ले कर वैमानिक तक चौबीस दण्डकवर्ती जीवों में सत्कार-सम्मानादि विनयव्यवहार का निरूपण किया गया है। निष्कर्ष-नैरयिक जीवों, पंच स्थावरों, तीन विकलेन्द्रिय जीवों में परस्पर सत्कार-सम्मानादि विनयव्यवहार नहीं है, क्योंकि उनके पास इस प्रकार के साधन नहीं हैं तथा वे सदैव दुःखग्रस्त रहते हैं / तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय जीवों में अासनाऽभिग्रह तथा आसनाऽनुप्रदानरूप विनयव्यवहार को छोड़ कर शेष सब विनयव्यवहार सम्भव हैं। क्योंकि पंचेन्द्रियतिर्यंचों के व्यक्त भाषा तथा हाथ का अभाव होने से ये दोनों प्रकार के विनय सम्भव नहीं हैं। चारों प्रकार के देवों और मनुष्यों में सत्कार-सम्मानादि सभी प्रकार के विनयव्यवहार हैं। कठिनशब्दार्थ-सक्कारेइ सत्कार अर्थात् विनययोग्य के प्रति वन्दनादि द्वारा प्रादर करना, अथवा उत्तम वस्त्रादिप्रदान द्वारा सत्कार करना / सम्माणेइ--सम्मान--तथाविध बहुमान करना / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org